मांसाहार वर्सेस शाकाहार
मांसाहार वर्सेस शाकाहार.. अक्सर इस मुद्दे पे बहस होती रहती है और शाकाहार समर्थक इस मुद्दे पर मांसाहारियों को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं लेकिन क्या वाकई खानपान का मुद्दा नैतिकता या संवेदनशीलता से जुड़ा होता है, जैसा इसे साबित करने की कोशिश की जाती है? नैतिकता कोई सार्वभौमिक टर्म में नहीं लागू होती बल्कि अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग रूप में हो सकती है और ठीक इसी तरह संवेदनशीलता भी एक ट्विस्टिंग फैक्ट है जो हमेशा चयनात्मक रूप में लागू होती है।
बहरहाल.. मांसाहार या शाकाहार, इसे सिर्फ भोजन मान कर बेहद सरल रूप में सर्वाइवल के मुख्य सिद्धांत के रूप में समझिये। दरअसल हमारे आसपास इस यूनिवर्स में जितना भी कुछ है, वह सब एक तरह की इनफार्मेशन है जो आगे सरकती रहती है। जब सिंगल सेल आर्गेनिजम, कांपलेक्स आर्गेनिजम के रूप में ढला तो वह सर्वाइवल के लिहाज से अपने आसपास मौजूद स्थितियों के दोहन के हिसाब से ढलता गया और उसमें उत्तरोत्तर सुधार भी आता गया जिससे आगे चल कर जीवन का विभिन्नताओं से भरा वह जटिल रूप सामने आया जो हम आज अपने आसपास देखते हैं।
आप एक बया को देखिये, क्या आप इंटेलिजेंट स्पिसीज होते हुए भी उसके जैसा घोंसला बना सकते हैं? पर कोई बया जिसे आप जन्म से ही बिलकुल अलग माहौल में रखें कि उसे यह घोंसला बनाने की झलक भी न मिले लेकिन उसके प्राकृतिक आवास में पहुंचते ही वह वैसे ही घोंसला बना लेगा.. कछुए/मगरमच्छ के बच्चों को देखा है, पानी से दूर रेत में गड्ढे खोद कर दिये गये अंडों से निकलते ही पानी की तरफ भागते हैं न कि सूखी जमीन की तरफ.. क्यों? क्योंकि उन्हें पता है कि उनका जीवन उधर है। कौन सिखाता है उन्हें? इंसान के सिवा सभी जीवों को पता रहता है कि उन्हें मेटिंग करने का मौका तभी मिलेगा जब वे मादा को रिझाने में कामयाब रहेंगे, इसके लिये वे जान की बाजी तक लगा देते हैं.. कौन सिखाता है उन्हें?
सर्वाइवल के बुनियादी सिद्धांत
दरअसल सर्वाइवल सबसे अहम कड़ी है जीवन की.. अगर जीवों को उसकी समझ नहीं होगी तो जीवन का पनपना मुमकिन नहीं.. और यह सर्वाइवल तीन मूलभूत पिलर पर डिपेंड रहता है। पहला भोजन क्या हो सकता है और इसे कैसे हासिल करना है, दूसरा प्रजनन कैसे करना है ताकि अपने जींस आगे बढ़ाये जा सकें और तीसरा खतरा क्या है और इसके अगेंस्ट हमें सुरक्षा कैसे करनी है। यह सब इन्फोर्मेशन जीवों के जींस में रहती है जो वे आगे सरका देते हैं अपनी अगली नस्ल में.. तो यह बेसिक समझ सभी जीवों में रहती है और उनका शरीर उसी इनफार्मेशन के हिसाब से ड्वेलप होता है।
मतलब शेर के बच्चे को पता होता है कि उसका भोजन मांस है, घास नहीं। हिरण को पता होता है कि उसका भोजन घास है, मांस नहीं। इनके शरीर का पाचन तंत्र उसी हिसाब से विकसित हुआ है.. आप चाह कर भी शेर को घास और हिरण को मांस नहीं खिला सकते। हर जीव को जन्मजात पता होता है कि उसे अपना वंश कैसे आगे बढ़ाना है और उसके लिये उसके पास क्या स्किल होनी चाहिये.. बया के घोसले या दो जवान नर शेरों की लड़ाई को इसी से जोड़ कर देखिये। उन्हें खतरे का अंदाजा रहता है और उससे सुरक्षा कैसे करनी है, वह भी मोटे तौर पर पता रहता है.. इसे खुद पर अप्लाई करके देख सकते हैं। अंजानी चीजों से कैसे डरते हैं और बचने की कैसे कोशिश करते हैं।
हाँ एक बात यह भी है कि इस इनफार्मेशन के साथ कई बार आदतें और बीमारियां भी ट्रांसफर हो जाती हैं जिन्हें हम अनुवांशिकता के रूप में देखते हैं। बाकी इस जेनेटिक इनफार्मेशन के हिसाब से मौजूदा इंसान सर्वाहारी होता है न कि सिर्फ मांसाहारी या शाकाहारी.. ठीक कुत्ते या भालू की तर्ज पर। यहाँ सर्वाहारी का अर्थ यह है कि उसका शरीर इस हिसाब से ढला है कि अपनी भौगोलिक स्थिति और आसपास प्रचुर मात्रा में उपलब्धता के आधार पर उसका मुख्य भोजन शाकाहार या मांसाहार दोनों हो सकते हैं जबकि प्रकृति के हिसाब से यह सुविधा इंसान के सिवा कुत्ते, भालू जैसे बस कुछ जीवों में ही मिलेगी।
कहने का अर्थ यह है कि इंसान का शुद्ध शाकाहारी होना प्राकृतिक नहीं बल्कि यह एक कला है जिसे सीखना पड़ता है, एक नियंत्रण है जिसे पाना पड़ता है तो इस मामले में सर्वाहारी तो प्राकृतिक है क्योंकि वह दोनों तरह के भोजन करता है और उसका शरीर उसी हिसाब से डिजाइन हुआ है कि बिना किसी अतिरिक्त प्रयास या अप्राकृतिक तरीके/सपोर्ट के दोनों तरह का भोजन पचा सके.. जबकि शुद्ध शाकाहारी होना वह अवस्था है जिसे आपको नियंत्रण से सीखना पड़ता है।
क्या मांसाहार से बचा जा सकता है
अब आइये इस मुद्दे पर कि जहाँ फसल उपलब्ध है वहां लोग मांसाहार से परहेज कर सकते हैं क्योंकि है तो यह जीव हत्या पर ही आधारित। बात तार्किक है लेकिन व्यवहारिक नहीं.. हम साढ़े सात सौ करोड़ इंसान हैं और अस्सी प्रतिशत से ऊपर लोग मांसाहार करते होंगे और अगर एक पल के लिये मान लें कि सब शाकाहार अपना लें तो क्या सब्जियों और दालों की उपलब्धता इतनी है कि सबको अन्न मिल सके?
क्या हमारे पास इतनी खेती लायक जमीन है? क्या हम जंगल काट कर खेत बनाने की कीमत पर पर्यावरणीय असंतुलन के साइड इफेक्ट समझते हैं? फिर कमी के साथ जो इस खाद्यान्न की कीमत होगी, क्या वह सब लोग चुका पायेंगे.. अभी तो दो सौ रुपये की दाल और सौ रुपये की प्याज के नाम से आंसू आ जाते हैं।
मौसमों या कुछ बुरे इत्तेफ़ाक़ों को ध्यान में रखते हुए थोड़ा सोचियेगा कि अकाल कैसे पड़ते हैं और इसके क्या प्रभाव होते हैं.. और जब सभी शाकाहारी हो जायेंगे तो सर्वाइवल के लिहाज से इंसानी आबादी की क्या स्थिति बनेगी? ग्लोबल वार्मिंग के दौर में फसल उत्पादन तो वैसे भी अनिश्चित हो चुका है.. जो जैसे तैसे करके उगा भी पायेंगे वह क्या सबका पेट भरने लायक होगा और क्या सब सोने के भाव बिकते उस अनाज की कीमत चुकाने में सक्षम भी होंगे?
अब इसके उन पहलुओं पर एक नजर जो अक्सर शाकाहार समर्थकों की तरफ से पेश होते हैं.. जैसे एक तर्क यह होता है कि मांसाहार के लिये जो जानवरों की फार्मिंग होती है वह बड़े पैमाने पर नेचुरल रिसोर्सेज को खत्म करती है, इतने संसाधन उपयोग करके तो हम शाकाहारी ही रह सकते हैं। यह तर्क यूएस, कनाडा, आस्ट्रेलिया या योरप के कुछ देशों में छोटे पैमाने पर अप्लाई हो सकते हैं जहां बड़े जानवरों की फार्मिंग होती है लेकिन बाकी दुनिया पर नहीं। इसे अपने देश से ही समझ लीजिये कि बड़े जानवरों के जो कुछ तबेले टाईप फार्म मिलेंगे भी तो वे दुग्ध उत्पादन के लिये होते हैं न कि मीट प्रोडक्शन के लिये।
बकरों, भेड़ों, सूअरों की कोई फार्मिंग नहीं होती, बल्कि वे शहरों की बाहरी बस्तियों, गांवों जंगलों के चरवाहे/ग्रामीण/आदिवासी आदि यूं ही खुले में पालते हैं और वे नदियों, तालाबों का पानी पीते, नहाते हैं, घास, पेड़ों के पत्ते, भूसी, चोकर, खली, वगैरह खाते हैं.. ऐसा कुछ नहीं खाते कि उसे इंसान खा कर काम चला सकता हो।
सिर्फ मुर्गियों के लिये पोल्ट्री फार्मिंग होती है जो एक घर जितनी जगह में होती है और उनका खाना भी कोई इंसानों की हकमारी नहीं करता। यह जो लैंड, वाटर, फूड के रूप में इंसानों के साथ नेचुरल रिसोर्सेज का बटवारा बताया जाता है, उसे इन चीजों से खुद मैच कर के देख लीजिये। फिर मांसाहार का एक बड़ा हिस्सा समुद्र से प्राप्त होता है और उसमें इंसानों का कोई भी, कैसा भी कोई न योगदान होता है और न ही ऐसा कोई बटवारा कि उसके लिये नेचुरल खर्चने का रोना रोया जाये।
मांसाहार के खिलाफ एक तर्क जीव हत्या का पेश किया जाता है जो यूँ तो संवेदनशीलता के नजरिये से तार्किक लगता है लेकिन यहां संवेदनशीलता ट्विस्ट करते हुए सलेक्टिव हो जाती है। जीव हत्या कहेंगे तो जीव में सभी आ गये लेकिन जब शाकाहार पर आधारित फसल उगाई जाती है तो फसल को सुरक्षित रखने के लिये कीटनाशकों के प्रयोग से बहुत से जीवों को मारा जाता है, क्या वे जीव नहीं होते? आजकल टिड्डियों ने भारत, पाकिस्तान, ईरान में आतंक मचाया हुआ है और फसल को इनसे बचाने के लिये इन्हें करोड़ों की तादाद में मारा जायेगा.. क्या वे जीव नहीं?
आप कहेंगे कि वे नुकसानदायक हैं इसलिये मारते हैं लेकिन हैं तो जीव ही। इंसानी क्रूरता तो यह भी है और जिस दूध को लोग शान से पीता हैं, उसका हासिल करना भी क्रूरता ही है.. पर वहां वैसी संवेदनशीलता नहीं दिखाई पड़ती। साईज मैटर करता है.. संवेदनशीलता जगाने के लिये कम से कम मुर्गे से बड़ा साईज तो होना चाहिये वर्ना बकरे के कटने पर तड़पने वाले लोग घर में चींटियों, दीमकों, काक्रोचों, छिपकलियों, चूहों को बड़े आराम से मार लेते हैं और कोई संवेदनशीलता नहीं जागती.. जीव तो वे भी हैं और वे सब भी अपना प्राकृतिक चक्र ही पूरा कर रहे हैं। कोई कुछ अप्राकृतिक काम नहीं कर रहा।
क्या मांसाहार से पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ता है
एक तर्क होता है पर्यावरणीय असंतुलन का.. कि मांसाहार के चलते बड़े पैमाने पर पर्यावरण प्रभावित हो रहा है। यह अधूरा इल्जाम है.. पर्यावरण अंधाधुंध बढ़ती इंसानी आबादी और विकास का दुष्परिणाम है, खास कर आबादी का।
आबादी इतनी ज्यादा है कि उसके भोजन के लिये जो इंडस्ट्रियल मीट प्रोडक्शन हो रहा है, खास कर समुद्र में... जो हमारे इको सिस्टम को तबाह किये दे रहा है लेकिन एक सच यह भी है कि मांसाहार ओनली जैसा कुछ नहीं होता.. वह सपोर्टिंग फूड है, रोटी चावल या और दिनों में जो इंसानी खाना है वह खेतों पर ही डिपेंड है और इसे हासिल करने के लिये बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं, ब्राजील ने ज्यादा जमीन हासिल करने के लिये ही अपने जंगल जलवाये थे.. तो पर्यावरण में खतरनाक असंतुलन तो यह भी पैदा कर रहा है। फिर इसके लिये एक तरह का खाना कैसे दोषी हो गया?
हाँ सबसे अहम बात.. यह इंसान के आसपास की स्थिति, उपलब्धता, बचपन से स्थापित आदतों पर आधारित च्वाइस सिस्टम है कि कोई क्या खायेगा और शाकाहार हो या मांसाहार, इसका नैतिकता या संवेदनशीलता से कोई लेना-देना नहीं होता, जिन्हें ऐसा लगता है वे एक बार सारे फैक्ट्स अपने सामने रखें तो उन्हें अपने विचारों का दोहरापन खुद नजर आ जायेगा।
Post a Comment