CAA/NRC ke peeche kyon hai hungama-सीएए/एनआरसी के पीछे क्यों है हंगामा
CAA/NRC KYA HAI-सीएए एनआरसी क्या है
सबसे पहले तो एक चीज यह समझ लीजिये कि जो बहुत से लोग यह सवाल कर रहे हैं कि आखिर लोग इस कानून का विरोध क्यों कर रहे हैं क्योंकि प्रत्यक्षतः तो इसमें ऐसा कुछ नहीं है जिसका विरोध किया जाये, यह तो सिर्फ पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश जैसे मुस्लिम बहुल देशों में धार्मिक आधार पर पीड़ित हुए गैर मुस्लिम शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता दिलाने में कुछ विशेष छूट देने का प्रावधान करता है। बाकी नागरिकता देने का आम कानून तो सभी के लिये है ही जो पुराने टर्म्स में बरकरार है.. यानि कोई मुस्लिम शरणार्थी भी अगर नागरिकता चाहता है तो सामान्य रूट से आ कर अप्लाई कर सकता है।
मोटे तौर पर यह सही बात है और विरोध का सच यही है कि लोग इसका अकेले विरोध नहीं कर रहे बल्कि इसके एनआरसी के साथ उस कंबाइंड स्वरूप का विरोध कर रहे हैं जिसकी क्रोनोलाॅजी गृहमंत्री जी ने समझाई थी। अगर आप यह सोचते हैं कि एनआरसी का विरोध अभी क्यों? अभी तो इसका कोई ड्राफ्ट तक नहीं बना तो आपको यह समझना पड़ेगा कि असाम में यह एक माॅडल के रूप में आलरेडी मौजूद है और अभी लागू हो या पांच-दस साल बाद.. कटऑफ डेट छोड़ कर यही प्रक्रिया रहनी है। तो इस छंटनी में जो लोग अभी बाहर हैं, उन पर सीएए को अप्लाई कर के देख लीजिये.. इसका डिस्क्रिमिनेटिव स्ट्रक्चर अभी आपके सामने आ जायेगा। शर्त इतनी है कि आपको यह समझ होनी चाहिये कि प्रक्रिया से बाहर हुए लोग वाकई घुसपैठिये हों, यह कतई जरूरी नहीं। यहां सबकुछ डिपेंड करता है नागरिकता साबित करने के लिये दिये गये कागजों पे और कागजों में त्रुटियाँ होना इस बड़े से देश में आम बात है। इतनी बड़ी आबादी के लिये कोई भी कागज बनाने की प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण ही रहेगी। इस आधुनिक दौर में भी कंप्यूटर के सहारे बने वोटर आईडी और आधार कार्ड में ही आप ढेरों त्रुटियाँ चेक कर सकते हैं। पुराने कागज कैसे होंगे, इसका सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं।
एनआरसी के घातक साइड इफेक्ट
एक संकट में पड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश में पूरी मशीनरी एक लगभग गैरजरूरी प्रक्रिया (गैरजरूरी इसलिये कि सरकार के पास कई संसाधन होते हैं, कि जिन पर अवैध घुसपैठिये होने का शक है, उनकी जांच करा ले। उसके लिये पूरे देश को अपनी नागरिकता साबित करने को कहने की क्या जरूरत है) में झोंक देना अक्लमंदी नहीं, दूसरे खर्चों के संकट से जूझ रही सरकार एनआरसी के लिये फंड कहाँ से अरेंज करेगी और बात सिर्फ एनआरसी की नहीं, इस प्रक्रिया से बाहर हुए लोगों को अलग रखने के लिये रिक्वायर्ड हजारों डिटेंशन सेंटर्स की भी है जिसके लिये अरबों का बजट चाहिये.. तीसरे आलरेडी डूबते कारोबार और बढ़ती बेरोजगारी से जूझते देश की प्रोडक्टिविटी महीनों या सालों के लिये लाईनों में लगा कर ठप्प कर देना स्पष्ट विद्रोह को आमंत्रण देना है.. इन दिक्कतों को देखते हुए एक व्यवहारिक समझ यह कहती है कि कोई भी समझदार, संवेदनशील ऐसा घातक कदम नहीं उठायेगी, लेकिन सरकार के पिछले रिकार्ड्स को देखते हुए मान लेते हैं कि यह सरकार बिना अंजाम की परवाह किये यह कदम भी उठा लेती है तो नतीजे क्या होंगे।
सरकार उपजने वाले असंतोष को दबाने के लिये एक रियायत यह कह कर दे सकती है कि किसी को डिटेंशन सेंटर नहीं भेजा जायेगा, बस अवैध घुसपैठियों को चिन्हित करके उनसे सरकारी सुविधायें ली जायेंगी। सरकारी सुविधायें मसलन वोट नहीं डाल सकते, सरकारी सब्सिडी नहीं पा सकते, किसी योजना, या संस्थान में सरकार की तरफ से मिलने वाली छूट नहीं पा सकते, पुलिस केस और अदालती कार्रवाई के लिये शायद कुछ अलग उपधारायें इनक्लूड कर दी जायें जो कैटेगराइज्ड डाउटफुल नागरिकों के लिये हैं।
तो अब बात प्रक्रिया की.. किसी भी कटऑफ के कुछ भी डाक्युमेंट्स मांगे जाते हैं, मान के चलिये कि कागजी त्रुटियों के चलते आधा आबादी उन बाबुओं के आगे लाचार खड़ी होगी जिन्हें त्रुटियों की दशा में अपने विवेक के आधार पर निर्णय लेने की छूट दी जायेगी। अब यह बाबू कौन होंगे.. यह आपको किसी भी सरकारी संस्थान में झांकने पर समझ में आ जायेगा कि ज्यादातर सब सवर्ण ही होंगे और जो थोड़े बहुत बैकवर्ड या अदर माइनारिटीज होंगे भी तो उनका प्रभाव सीमित कर दिया जायेगा। इस बड़े निर्णायक समूह में ज्यादातर आपको जातीय या धार्मिक भेदभाव के संक्रमण से घिरे मिलेंगे। इनके लिये कोई मुश्किल नहीं अनुसूचित एससी-एसटी, अल्पसंख्यकों, ओबीसी, आदिवासियों को त्रुटियों के नाम पर 'डी कैटेगरी' में डाल देना।
आप असाम माॅडल को लीजिये.. पूर्व राष्ट्रपति का परिवार, पूर्व मुख्यमंत्री या सेना में काम कर चुके लोग तक एनआरसी की प्रक्रिया में बाहर किये गये। आपको क्या लगता है कि इन्होंने कागज नहीं पेश होंगे? बस यही माॅडल पूरे भारत पर लागू होगा। हो सकता है कि त्रुटियाँ दूर करने के लिये कोई मौका दिया जाये लेकिन संशोधन के लिये कितनी लंबी लाईनें होंगी.. कोई अंदाजा है? आप आज की तारीख में अपनी वोटर आईडी या आधार में संशोधन करा के देख लीजिये।
फिर प्रक्रिया सम्पन्न हो चुकने के बाद जब एक तिहाई या आधा भारत डी कैटेगरी का नागरिक बना बाहर खड़ा होगा तब सीएए अपना औचित्य साबित करेगा। यहां इसका डिस्क्रिमिनेटिव स्ट्रक्चर सामने आयेगा कि मुस्लिम तो एलिजिबल ही नहीं होंगे अप्लाई करने के और जो बाकी एलिजिबल होंगे भी तो वह भी बाकायदा खुद से लिख कर यह एडमिट करेंगे कि वे माइग्रेंट हैं और उन्हें भारत की नागरिकता चाहिये। एक सवाल यहाँ भी उठते है कि सीएए का बेस तो धार्मिक रूप से प्रताड़ित होना है तो वे यह कैसे प्रमाणित करेंगे कि वे फलां देश के प्रताड़ित हैं? वे देश तो यह सर्टिफिकेट देने से रहे। उससे बढ़ कर सवाल यह है कि पीढ़ियों से भारत में रह रहे लोग यह कैसे साबित करेंगे कि वे पाकिस्तान, अफगानिस्तान या बांग्लादेश के नागरिक हैं? यहाँ हमें यह मानना पड़ेगा कि सीएए का प्रत्यक्ष रूप एक छल मात्र है और ऐसे किसी दावे के लिये किसी प्रमाणिकता की जरूरत नहीं होगी बल्कि उनका आवेदनकर्ता का हलफनामा ही काफी होगा।
अब इसके बाद का सोचिये.. मुसलमान तो डी कैटेगरी का हो कर अपने अधिकार खो बैठेगा लेकिन जो बाकी नागरिकता पायेंगे भी तो वे माइग्रेंट के तौर पर ही पायेंगे तो ऐसी कोई शर्त नहीं कि उन्हें भी जन्म से भारतीय कहलाये जाने वाले नागरिक के एग्जेक्ट बराबर अधिकार मिलेंगे। उदाहरणार्थ एक दलित आरक्षण के नाम पर अभी सरकारी सिस्टम में नौकरी पा सकता है, शिक्षा में छूट पा सकता है लेकिन क्या एक शरणार्थी दलित या शरणार्थी से नागरिक बना दलित भी यही सुविधा पा सकता है.. इस बारे में अभी कुछ स्पष्ट नहीं है। अभी तो सीएए से नये नागरिकता पाने वाले दलितों को ही देखिये कि वे क्या आरक्षण पा रहे हैं या नहीं, क्योंकि पहली लड़ाई तो यहीं से शुरू होगी। बहरहाल इस छंटनी से भारत सरकार का खर्च काफी कम हो जायेगा क्योंकि उस पर सिर्फ अपने नागरिकों के लिये योजनायें बनाने, सब्सिडी देने, खर्च वहन करने का दबाव होगा न कि अनागरिकों का, दूसरे जो वैलिड डिक्लेयर होंगे वे एक पार्टी के ही सपोर्टर होंगे तो सरकार को भी पार्टी के तौर पर पचास साल जीत हार की फिक्र करने की जरूरत नहीं।
सीएए का मौजूदा निशाना
उपरोक्त बातें बस एक संभावना हैं जो घटित हो भी सकती हैं और हो सकता है कि न भी हों लेकिन इसके मौजूदा निशाने से तो इनकार नहीं किया जा सकता। इसके बहाने सरकार ने दो निशाने साधे हैं.. पहला देश की वर्तमान हालत और समस्याओं से ध्यान हटा कर एक ऐसे मुद्दे पर लोगों को उलझा देना जो महीनों चल सकता है। आज हालात यह हैं कि अर्थव्यवस्था एकदम नाजुक दौर में पहुंच चुकी है, ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के मुताबिक करप्शन में भारत टाॅप कंट्रीज में है, ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मुताबिक भारत सबसे अधिक कुपोषित बच्चों वाला देश है, डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत लगातार नीचे जा रहा है, सरकार का घाटा एकदम निचले स्तर पर पहुंच चुका है, आंकड़ों की बाजीगरी से परे जीडीपी गड्डे में जा रही है, रोजगार की हालत सबसे खस्ता दौर में है, एनपीए की स्थिति भयावह हो चुकी है, सरकारी कंपनियां या तो डूब रही, या बेची जा रहीं या जिनकी हालत अच्छी है वे सरकार को संभालने में गर्क हुई जा रहीं। ढेरों मसले सरकार के सामने मुंह बांये खड़े हैं... इस एक कदम से उसे इतनी राहत तो मिल गयी कि लोग बजाय इन मुद्दों पर बात करने के सीएए पर बात कर रहे हैं और देश भर में जगह-जगह शाहीन बाग सज रहे हैं जो सरकार के लिये बड़ी राहत की बात है।
विरोध का इस्लामी चेहरा
एक के साथ एक फ्री वाले स्टाईल में सरकार ने इस पैंतरे के साथ एक और लक्ष्य साधा था कि चूंकि यह प्रावधान मुसलमानों के साथ भेदभाव (एनआरसी के बाद वाली स्थिति में) करता है तो तय था कि मुस्लिम विरोध करेंगे ही करेंगे तो उनके विरोध को इस रूप में कि वे पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक रूप से प्रताड़ित हुए हिंदुओं को नागरिकता देने का विरोध कर रहे हैं या वे अपने रोहिंग्या भाइयों को भी नागरिकता दिलाना चाहते हैं... प्रचारित कर देंगे जिससे जो आम गैर राजनीतिक हिंदू है, वह भी कुपित हो कर सरकार के साथ आ खड़ा होगा, जिसका फौरी लाभ तो होगा ही, आगे चल कर चुनावी लाभ भी मिलना है... लेकिन विरोध में अचानक सभी वर्ग के लोग आ खड़े हुए, जामिया की घटना के पीछे तमाम काॅलेज, यूनिवर्सिटी विरोध में आ गये। देश से विदेश तक विरोध हो गया जिससे विरोध को इस्लामी चेहरा देने की मंशा विफल हो गयी।
लेकिन विरोध के खिलाफ पुलिसिया हिंसा ने मर्दों को पीछे धकेल दिया। फिर औरतों को आगे आना पड़ा.. पहले एक शाहीन बाग सजा, फिर धीरे-धीरे देश में ढेरों शाहीन बाग खड़े हो गये। अब यहां खेल करना अपेक्षाकृत आसान हो गया। विरोध में खड़े मर्दों को पहचानना (धार्मिक पहचान वालों से इतर) मुश्किल है कि वे मुसलमान हैं या नहीं, क्योंकि कुछ दाढ़ी, कुर्ते पजामे और टोपी वालों को छोड़ बाकी मुसलमान भी दूसरे आम लोगों जैसे ही दिखते हैं लेकिन औरतों की बात अलग है। वे घर से निकली तो हैं लेकिन उनमें बड़ी तादाद उन घरेलू औरतों की है जो बुर्के के रूप में अपनी पहचान कायम रखे हैं। हालांकि इन शाहीन बागों का सच यह है कि इनमें सभी तरह की महिलायें और जहाँ संभव है वहां सभी वर्ग के पुरुष भी सम्मिलित हैं लेकिन मीडिया और सोशल मीडिया में बड़ी सफाई और होशियारी से ज्यादातर उन बुर्के वालियों के फोटो और वीडियो वायरल किये जा रहे हैं ताकि विरोध को इस्लामी शक्ल दी जा सके। मजे की बात यह है कि इस काम में अनजाने ही वे लिबरल और सेकुलर लोग भी शामिल हैं जो विरोध में खड़े हैं। होना यह चाहिये था कि से कम विरोध में खड़े लोग तो गैर मुस्लिम महिलाओं और पुरुषों के बयान, फोटो और वीडियो वायरल करते जिससे आंदोलन को भारतीय पहचान मिले, मुस्लिम खातूनों को तो मीडिया और सरकार समर्थक वायरल कर ही रहे हैं। बहरहाल सरकार के लिये यह मुस्कराने का वक्त है, जो काम मर्दों के साथ नहीं हो पाया था वह औरतों के साथ कामयाबी से हो रहा है और वे विरोध को इस्लामी रूप दे पाने में सफल हो रहे हैं। उन्हें साफ-साफ पता है कि उनका वोटर कहाँ है, क्या देखता समझता है और किस आईक्यू का है।
अब एक अहम प्वाइंट कि अभी सीएए की जरूरत ही क्यों थी, कानून तो पहले से ही अपना काम कर रहा था, बात सिर्फ नागरिकता देने की थी तो वह सरकार के हाथ में था, कौन उनसे पूछने जा रहा था कि किस टाईम पीरियड में दी और किस धर्म के मानने वाले को नहीं दी। दरअसल असम में जो अनपेकित रूप से तेरह चौदह लाख हिंदू बाहर हुए, यह भाजपा के वोटर्स के लिहाज से ठीक नहीं था तो इन्हें बल्क में और शार्ट टाईम में किस तरह नागरिकता दे कर अपने पाले में लाया जा सकता था... यह उसी की कवायद थी। मुस्लिम इसलिये बाहर करने पड़े कि वर्ना वे भी इस कानून का फायदा उठा कर अंदर आ सकते थे और उनसे वोट की उम्मीद तो भाजपा को थी नहीं। बहरहाल तीर एक था लेकिन कई लक्ष्य साधने वाला था.. कुछ तो सधे हुए दिखाई दे रहे और कुछ सधना बाकी हैं। आगे एनआरसी होती है तो भी और नहीं होती है तो भी।
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