आस्था बनाम तर्क 4
क्या वाकई जोड़ियाँ ईश्वर बनाता है
ठीक इसी तरह की एक उलझन होती है शादियों को लेकर भी जिस मामले में कहा जाता
है की जोड़ियाँ खुदा बनाता है या जोड़ियाँ स्वर्ग में बनती हैं… आप शादी के कार्ड्स पर
नजर दौड़ाइये— कहीं न कहीं आपको लिखा मिल ही जायेगा कि
जोड़ियां स्वर्ग में बनती हैं, बाकी धरती पर कहीं कहीं पंडित
लोग कुंडलियां मिला कर साकार भी करते हैं तो कहीं बिना पंडित/कुंडली ही जोड़ियां
सेट कर दी जाती हैं— तो कहीं सेट हो जाती हैं।
हमारे समाज की आम धारणा और मान्यता भी यही है कि जोड़ियां ईश्वर बनाता है और
इसीलिये फिजां में "रब ने बनाया तुझे मेरे लिये, मुझे तेरे लिये"
जैसे गीतों की गूँज भी सुनने में आती रहती है।
अब इस बात पर तर्कशील विवेक के साथ थोड़ा गौर करें— क्या वाकई में एसा हो
सकता है?
मान लीजिये कि ऐसा ही है तो सबसे पहले तो ईश्वर का जातिवादी चरित्र उभर कर
सामने आता है— क्योंकि लगभग सभी धर्मों में ज्यादातर शादियां समान जाति में ही होती हैं,
पंडित लोग भी समान जाति की कुंडलियां ही मिलाते पाये जाते हैं।
क्यों भाई— यह व्यवस्था तो मानवजनित थी न, इंसानी सभ्यता के
शुरूआती दौर में तो ऐसा कुछ था नहीं, सभ्यता के विकास के साथ
मानव श्रंखला धर्म और जातियों में बंटती गयी तो शादियां भी उसी तरह सजातीय ही होने
लगीं— मतलब इंसानों की देखादेखी ईश्वर भी जातिवादी होता गया।
इंसान ईश्वर से है या ईश्वर इंसान से?
फिर ईश्वर/खुदा के मामले में एक मान्यता यह भी है कि वह गलतियाँ नहीं करता।
क्या वाकई— दुनिया में कितनी ही शादियां तलाक की देहरी पर खत्म हो जाती हैं। पश्चिमी
देशों में तो शादी बमुश्किल कुछ साल टिकती है और इससे थोड़ा ही बेहतर हाल मुस्लिम
देशों का है।
पश्चिमी देशों की बात करें तो अपने जीवन में एक पुरुष या महिला कम से कम
तीन-चार शादियां तो करते ही हैं— यानि इतने ही तलाक। तो इतने बड़े पैमाने पर कैसे गलत जोड़ियां
बन जाती हैं? यानि अगर जोड़ियां ईश्वर ही बनाता है तो इस
मामले में उससे भयंकर रूप से गलतियाँ होती हैं।
ईश्वर का पक्षपाती चरित्र चित्रण
फिर इससे ईश्वर का मर्दवादी चेहरा भी सामने आता है— अतीत से ले कर वर्तमान
तक, हजारों लाखों एसे पुरुष मिल जायेंगे जिनकी दस बीस
पत्नियों से लेकर सोलह हजार रानियां तक मिल जायेंगी… लेकिन
ऐसी स्त्री शायद ही मिले जिसके दस बीस पति हों।
मुस्लिम देशों में हजारों उदाहरण मिल जायेंगे जहां एक आदमी एक से ज्यादा
बीवियां रखे है— लेकिन एक से ज्यादा पति वाली औरत कोई न मिलेगी। अब सामाजिक मान्यता का
रोना मत रोइयेगा— क्योंकि जोड़ियां अगर ईश्वर बनाता है तो इस
बात की जिम्मेदारी उसी पर आयेगी।
फिर ईश्वर का एक चेहरा आपको अन्यायी जैसा भी नजर आयेगा— पुराने जमाने में
गुलाम/कनीज/लौंडी/रखैल जैसे संबोधन वालों/वालियों की भरमार मिलेगी, जिनकी कभी कोई जोड़ी नहीं बनाई गयी— आज भी कलाम,
अटल, रामदेव, माया,
ममता, जया जैसे लोग अपने समाज में ही मिल
जायेंगे जो अकेले जिये और अकेले चले गये या चले जायेंगे।
इन सब की किस्मत में जोड़ी का सुख क्यों न लिखा गया— क्या यह अन्याय नहीं।
उनकी मर्जी न कहियेगा— मर्जी तो मोदी जी की भी न रही होगी,
वर्ना अकेले क्यों होते आज— पर शादी तो हुई न।
फिर आजकल एक और चलन ट्रेंड में है, समलैंगिक जोड़ों का— जहां
लड़का लड़के के साथ और लड़की के साथ ही रहने पर बजिद है और पश्चिम के कई समाजों में
इसे मान्यता भी पहले से हासिल है और अब तो भारत में भी इसकी छूट है। अब यह तो
प्रजननवादी प्रकृति के विपरीत है न, इस तरह की गलती कैसे हो
रही है प्रभु से?
जोड़ियां तो शादी की ही तरह "लिव इन" में भी बनती हैं, सर्टिफिकेट का ही तो
फर्क है— यहां पे एकाएक ईश्वर का रवैया अंतर्जातीय हो जाता
है। ऐसा क्यों?
फिर एक तरफ तो जन्नत गैरमोमिनों के लिये वर्जित कर दी, दूसरी तरफ आमिर की जोड़ी
रीना, किरण से, सैफ की जोड़ी अमृता,
करीना से, सलीम खान के सारे बच्चों की शादी
गैर-मुस्लिमों से करा दी। यह तो डबल स्टैंडर्ड वाली बात हो गयी न प्रभु।
Society against couples |
अब रहा समाज— जो गला फाड़ के चिल्लाता है कि जोड़ियां स्वर्ग में बनती है, लेकिन जैसे ही उनके बेटे/बेटी ने किसी मुस्लिम लड़के/लड़की से शादी कर ली—
लवजिहाद का झंडा उठा कर हाय-हाय करना शुरू कर देते हैं। मुस्लिम घर
में हिंदू बहू या दामाद आ गया तो उसे कलमा पढ़ाने की तैयारी शुरू कर देते हैं और
किसी दलित के लड़के/लड़की ने किसी सवर्ण के लड़के/लड़की से शादी कर ली तो तलवार/बंदूक
निकाल कर आनर किलिंग में देर नहीं लगाते।
ऐसी हर स्थिति में "जोड़ियां स्वर्ग में बनती हैं" को तहा कर, लपेट कर छुपा दिया जाता
है।
देखिये भई— अब जोड़ियां ईश्वर बनाता है, अगर आप यह मानते हैं तो
ईश्वर पर यह आरोप झेलिये, या यह मान लीजिये कि जोड़ियां हम
बनाते हैं न कि ईश्वर।
धार्मिक किताबें विज्ञान की शोध पुस्तिकायें नहीं हैं
धार्मिक किताबें कोई वैज्ञानिक शोध पर लिखी किताबें नहीं होतीं बल्कि वे
असल में इसलिये होती हैं कि लोग उनसे जुडी बातों के मकसद को ग्रहण करें न की उनकी
कहानियों को पकड़ कर उनमे विज्ञान ढूँढने बैठ जायें लेकिन दुर्योग से होता यही है कि
उस दौर में लिखी किताबों में लोग विज्ञान ढूँढने बैठ जाते हैं जबकि जिस दौर में
पृथ्वी या ब्रह्माण्ड को लेकर बहुत ही सीमित और नाम मात्र की जानकारी थी। अब लोग
दावे करेंगे तो सवाल उठाने वाले सवाल भी उठायेंगे।
इसी तरह मेरी नजर में कुरान वह निर्देश पुस्तिका है— वह हिदायत की किताब है,
जो पढ़ कर सवाब कमाने के लिये नहीं, बल्कि
उसके निर्देशों को अमल में लाने के लिये, अपनी जिंदगी में
उतारने के लिये है। वह आपको बताती है कि एक इंसान या समाज के तौर पर आपको कैसे
रहना है, कैसे जिंदगी गुजारनी है और कैसे फैसले करने है—
वह अलग-अलग घटनाओं के माध्यम से अपनी बात इस तरह से कहती है कि आप
उनके जरिये सीख लेकर अपनी जिंदगी में अप्लाई कर सकें। वह कोई डार्विन या आइंस्टाईन
की लिखी थ्योरी नहीं कि आप उसमें विज्ञान के नियम सूत्र तलाशने बैठ जाते हैं।
किताब कोई भी हो उसमें उस वक्त के वैज्ञानिक नियम सूत्र ही दर्ज किये जा
सकते हैं जिसमें बदलते वक्त के साथ सुधार या आमूल चूल परिवर्तन भी होते रहते हैं।
तो ऐसे में जाहिर है कि उन पुरानी किताबों में लिखी थ्योरी में त्रुटि आ जाना एक
स्वाभाविक सी बात है— लेकिन लोगों की आस्था इतनी पक्की है कि त्रुटि के नाम पर उनकी भावना पर
मुहम्मद अली जितना जोरदार पंच पड़ जाता है और भावना बिलबिला कर छटपटाती हुई किसी
तल्ख सर्टिफिकेट पर ही सुकून पाती है।
अगर वाकई में आपको लगता है कि सैकड़ों साल पहले लिखी धार्मिक किताबें
विज्ञान सम्मत हैं तो चलिये एक सवाल पर गौर कर लेते हैं— उम्मीद है कि इसे अन्यथा
न लेते हुए बस एक जिज्ञासा समझ कर अपनी वैज्ञानिक कम धार्मिक बुद्धि से इसका हल
जरूर बतायेंगे।
ऊपर या नीचे सिर्फ एक प्लेनेट पर हो सकता है
कुरान की सूरह अल-बकरा में आदम हव्वा इब्लीस को खुदा सजा के तौर पर हुक्म
देते हुए कहता है कि अब तुम सब उतरो और एक निश्चित वक्त तक जमीन पर रहो (आयत नं 30-38)— यह आयत साफ जाहिर
करती है कि सब लोग कहीं "ऊपर" हैं और उन्हें "नीचे" उतरने को
कहा जा रहा है। सामान्य भाषा में भी हम उसे भी "ऊपर वाला" ही कहते हैं।
इसी तरह वेदों पुराणों में भी जो किस्से हैं वे बताते हैं कि देवलोक कहीं "ऊपर" है और वहां से देवता गण
कभी-कभी साक्षात, तो कभी अवतार के रूप में "नीचे"
आते हैं।
अब मूल मुद्दे पे आइये— विज्ञान में 'ऊपर नीचे' का नियम ग्रेविटी के अकार्डिंग होता है, जो हर
प्लेनेट पर लागू होता है। जब तक आप जमीन पर हैं, "ऊपर-नीचे"
की बंदिश में हैं, लेकिन जैसे ही आप प्लेनेट से बाहर निकल कर
स्पेस में पंहुचते हैं, "ऊपर-नीचे" का नियम स्वतः
ही खत्म हो जाता है।
अब एक प्रयोग कीजिये— एक कमरे के एकदम केन्द्र में धागे से बांध कर एक गेंद लटका
दीजिये। मान लीजिये कि कमरा 'यूनिवर्स' है और गेंद आपकी 'पृथ्वी'... अब
चूँकि ग्रेविटी प्लेनेट के हर हिस्से में आपको सीधा ही खड़ा रखती है और आपके पैरों
की तरफ "नीचे" और सर की तरफ "ऊपर" होता है, तो उस हिसाब से जमीन के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद इंसानों के सर की दिशा
के हिसाब से एग्जेक्ट "ऊपर" निर्धारित कीजिये।
ग्रेविटी के अकार्डिंग भारतीय शख्स का सर (ऊपर) पूर्व दिशा में (सामने की
दीवार की तरफ) है, जमैकन शख्स का सर पश्चिम दिशा में
(पीछे की दीवार की तरफ), अल्जीरियन शख्स का सर दक्षिण
दिशा में (दाहिनी दीवार की तरफ), हवाई में खड़े शख्स का सर
उत्तर दिशा में (बायीं दीवार की तरफ), नार्वे में खड़े शख्स
का सर ऊपर (छत की तरफ) और न्यूजीलैंड में खड़े शख्स का सर नीचे (फर्श की तरफ) है...
यानि कहने का मतलब कि पृथ्वी के छः अलग हिस्सों में खड़े लोगों का
"ऊपर" समान नहीं, बल्कि अलग-अलग कोण पर है— तो अब आपको यह बताना है कि
आपकी किताबों में लिखा "ऊपर" पृथ्वी पर मौजूद इंसान के हिसाब से किस तरफ
है? यहां यह भी
ध्यान रखियेगा कि यूनिवर्स आपके कल्पना किये कमरे जितना छोटा नहीं बल्कि इतना
व्यापक है कि उसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक पंहुचने में रोशनी को भी अरबों वर्ष
लग जायेंगे।
यहां यह मत कहियेगा कि आपका खुदा या देवताओं वाला "ऊपर" हर तरफ
है, क्योंकि कमरे के बाहर मौजूद (उसे जो भी नाम दें) हस्ती कमरे के एक तरफ ही
हो सकती है, जबकि कमरे के बीच में टंगी गेंद के सामने,
पीछे, दायें, बायें,
ऊपर, नीचे के रूप में छः दिशायें होती हैं...
तो आपका वाला "ऊपर" आखिर किस तरफ है?
Written by Ashfaq Ahmad
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