आस्था बनाम तर्क
धर्म और तर्क एक साथ नहीं चल सकते
यह तो हुई तमाम तरह की संभावनाओं की बात… अब आइये यथार्थ में। हम जिस धर्म में पैदा
होते हैं हमेशा उसे ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं और किसी मुस्लिम धर्म में पैदा हुए
बन्दे को लगता है कि वही ‘सही' धर्म
में पैदा हुआ है जबकि किसी हिन्दू धर्म में पैदा हुए व्यक्ति को लगता है कि वह ‘सही धर्म में पैदा हुआ है और बाकी के सारे धर्म और उनके मानने वाले गलत
हैं। अलग-अलग बाड़ों में कैद लोगों की मानसिकता बस ‘अपना ही
श्रेष्ठ है’ से शुरू हो कर इसी पर ख़त्म होती है। दुनिया में
बहुत बड़ी तादाद ऐसे ही लोगों की है और मज़े की बात यह कि अपनी अंधभक्ति और अंध
श्रद्धा के चलते वे हर तरह की इल्लोजिकल बात को बड़ी आसानी से स्वीकार कर लेते हैं…
ज़रा सोचिये कि कैसे वे हर तरह की शिक्षा से लैस होते हुए भी उन तमाम
अतार्किक बातों पर अपनी स्वीकारोक्ति की मुहर लगा देते हैं—
आज हम किसी धार्मिक व्यक्ति के धर्म से परे की कोई अतार्किक बात कहते हैं
तो वह ज़रा सा दिमाग लगाता है और उसे खारिज कर देता है लेकिन वही अतार्किक बात अगर
उसे आसपास के दूसरे लोग कहें तो उस पर उस अतार्किक बात को सच मानने का दबाव बढ़ता
चला जाता है और हो सकता है कि किसी मोड़ पर आ कर वह खुद उस अतार्किक बात को अपनी
स्वीकारोक्ति दे बैठे… जबकि यह सभी धर्मों का एक सदियों पुराना पैटर्न है। बच्चा पैदा होता है तो
उसके माँ बाप धर्म से जुडी तमाम तरह की अतार्किक बातें बचपन से उसे परोसना शुरू कर
देते हैं।
थोड़ा बड़ा होता है तो घर के बाकी लोग, रिश्तेदार
वही अतार्किक बातें उसे कहते हैं, वह स्कूल कॉलेज पहुँचता है
तो वहां भी वही सब बातें दोहराने वाले मिलते हैं और फिर नौकरी में जाता है तो वहां
भी साथ के लोग उन्हीं बातों को दोहराते मिलते हैं और वह उन बातों को अपने अवचेतन
तक में ऐसे समां लेता है कि सपने में भी उन बातों से इनकार नहीं कर सकता।
ऐसे हाल में धार्मिक दलदल से निकल पाना आसान नहीं होता और अगर कोई निकल
पाता है तो ज़ाहिर है कि उसने कहीं तो इस पूरे पैटर्न के खिलाफ एक डिसीजन लिया था… सोचने का, सवाल करने का, जवाब ढूँढने का, हर धार्मिक कहानी को तर्क की कसौटी पर परखने का… और
यही मंथन है जिसके परिणामस्वरूप एक इंसान का सामना आस्तिकता से परे जा कर
वास्तविकता से होता है।
एक मुस्लिम के तौर पर अगर आप इस मंथन में कूदना चाहते हैं तो मेरे साथ आइये
और सोचिये, समझिये कि सच क्या हो सकता है… जो बातें सहज रूप से
उलझाती हैं, उन पर मनन कीजिये और किसी और से न सही तो खुद से
सवाल कीजिये।
क्या खुदा का सर्वज्ञ होना इस कहानी से साबित होता है
सबसे पहले आइये कुरआन की सूरे बकरा में मौजूद एक कहानी पर…
जो कि बताती है कि कैसे खुदा ने आदम को बनाया और इब्लीस समेत सभी
फरिश्तों से उसे सजदा करने को कहा, लेकिन इब्लीस ने इनकार कर
दिया और जिसकी परिणति उसकी शैतान के रूप में मान्यता पर हुई— इसी कहानी को अगर हम थोड़े प्रतीकात्मक तरीके से सोचें तो यह कुछ यूँ बनेगी…
मान लीजिये आप एक अंबानी टाईप कोई हस्ती हैं— सौ एकड़ में आपकी हवेली बनी हुई है, जिसमें अतिथियों के लिये रेस्ट हाऊस, पार्क, स्वीमिंग पूल जैसा सब इंतजाम है। साथ ही आप एक धर्मगुरू के तौर पर भी जाने
जाते हैं और आपने दावा कर रखा है कि आपको न सिर्फ लोगों के मन की बात पता रहती है,
बल्कि भविष्य में क्या होगा, वह भी आपकी
जानकारी में रहता है।
आपने दो बेटे पैदा किये हैं— एक दिन आप घर के सभी नौकरों के बीच दोनों
बेटों को सामने बुला कर बड़े बेटे और नौकरों से कहते हैं कि छोटे बेटे को पापा
कहो... यहां बड़े बेटे या नौकरों का 'पापा' कहना या 'पापा' मान लेना
महत्वपूर्ण नहीं है, आपके आदेश का पालन महत्वपूर्ण है—
लेकिन बड़े बेटे को यह गवारा नहीं होता कि वह अपने ही पिता के बेटे और अपने
छोटे भाई को पापा कहे— जहां बाकी नौकर बे चूं चरां छोटे बेटे को पापा तस्लीम कर लेते हैं,
वहीं बड़ा बेटा साफ इनकार कर देता है और आप खफा हो जाते हैं और अपने
बड़े बेटे को 'कुपुत्र' करार देते हैं
और उसके लिये 'जेल' की सजा का फैसला
करते हैं।
आपका एक कंप्यूटर है, जिसमें आपने अपनी जरूरी जानकारियाँ जुटा रखी हैं और आपने घर
में सबसे कह रखा है कि घर की भले सब चीजें छूना, इस्तेमाल
करना लेकिन इस कंप्यूटर को न छेड़ना। अब 'कुपुत्र' हो चुके बड़े बेटे ने छोटे को ऐसा उकसाया कि उसने कंप्यूटर खोल के देख
लिया।
Faith versus Logic |
पता चलते ही आपके गुस्से की सीमा न रही और आपने दोनों सुपुत्र और कुपुत्र
को हवेली से यह कहते हुए बाहर निकाल दिया कि अब उन्हें हवेली से बाहर बने रेस्ट
हाऊस में रहना है— एक निश्चित वक्त तक और फिर उन्हें वापस हवेली में एंट्री मिलेगी।
छोटे बेटे ने चूँकि माफी माँग ली थी तो आपने उसे आश्वासन
दिया है कि उसकी आल औलादों को फलाँ-फलाँ काम करने हैं—
जिससे न सिर्फ उन्हें हवेली में वापस एंट्री मिलेगी, बल्कि इनामो इकराम से भी नवाजा जायेगा। साथ ही बड़े कुपुत्र को भी एक मौका
दिया कि वह तो जेल जायेगा ही, साथ ही वह छोटे की आल औलादों
में जितनों को बहका लेगा— उन सबको भी अपने साथ जेल ले
जायेगा।
क्यों खुदा को हमेशा अहसान जताने की ज़रुरत है
अब वे वहां रहना शुरू करते हैं लेकिन आप बार-बार छोटे बेटे और उसकी औलादों को यह बताते
हुए अहसान जताते हैं कि देखो हमने तुम्हारे लिये यह घर बनाया— यह पार्क, पानी से भरा पूल बनवाया... यह एलसीडी,
केबिल, मिनिप्लेक्स, वेज
और नानवेज डिशेज का इंतजाम किया— यह रेमंड, रीड एंड टेलर के कपड़े, रोलैंड वाचेस, रे बेन चश्मे, नाईकी के शूज जैसी चीजें दीं।
अब यहां कुछ उलझनें पैदा होती हैं— पहला प्रश्नचिह्न आपके सबकुछ जानने पर लग
जायेगा कि आपको पता ही नहीं था कि आपके आह्वान पर बड़े बेटे का रियेक्शन क्या होगा,
वर्ना पता था तो या आप ऐसा कुछ कहते नहीं जिसकी अवहेलना हो या फिर
आपको इतना गुस्सा न आता कि अवहेलना करने पर बड़े बेटे को 'कुपुत्र'
घोषित कर देते।
दूसरी उलझन यह कि बड़े बेटे का आपके आह्वान पर छोटे को 'पापा' मानने से मुकरना एक आकस्मिक घटना थी, जो कि बड़े बेटे के थोड़ा झुक जाने पर टल सकती थी— इसलिये
रेस्टहाऊस और वहां की सुविधाओं के लिये छोटे पर आपका अहसान जताना झूठ साबित हो
जायेगा... अगर बड़का 'पापा' मान लेता तो
यह चीजें निरर्थक थीं। फिर पहले से बन चुकी चीजों के लिये, यह
डायलाग कि हमने तुम्हारे लिये बनाया— स्वतः ही खारिज हो
जायेगा।
तीसरी उलझन यह कि एक संभावना के तहत मान लें कि आपको सबकुछ पता था और आपने
सब जानते बूझते किया था तो फिर एक बेटे को 'कुपुत्र' का खिताब,
दोनों बेटों को हवेली से निकालने की सजा देना और कुपुत्र और उसके
बहकाये में आये छोटे बेटे की औलादों के लिये जेल की सजा का ताय्युन उनके साथ
ज्यादती है।
Faith versus Logic |
ज़ाहिर है कि खुद पर यह कहानी अप्लाई करेंगे तो आपको खुद से
अपना यह व्यवहार हज़म नहीं होगा लेकिन मज़हब के नाम पर इसी कहानी को आप बड़ी आसानी से
स्वीकार कर लेते हैं।
अब अगर आप इस तरह के सवाल किसी धार्मिक व्यक्ति या मौलाना आदि से करते हैं
तो सबसे पहली संभावना इस बात की बनती है कि आपको काफ़िर, मुनाफिक या नास्तिक का
खिताब दिया जा सकता है जो कि मुसलामानों में सबसे आम रिवाज़ है, क्योंकि इस्लाम में इस तरह के सवालों को सोचने या करने की इज़ाज़त ही नहीं
है। खैर… चलिये इस इलज़ाम पे बात करते हैं क्योंकि इस एक शब्द
‘नास्तिक' पे भी बड़ा कन्फ्यूज़न रहता
है।
नास्तिक का अर्थ क्या होना चाहिये
एक वह शख्स होता है— जो खुद को नास्तिक कहता तो है, जिसे आप भी नास्तिक
के रूप में ही कैटेगराईज करते हैं... लेकिन वह न सिर्फ स्थापित भगवान/खुदा और उनसे
जुड़ी मान्यताओं का उपहास उड़ाने में लगा रहता है— बल्कि उनमें
आस्था रखने वालों को भी अपमानित करने में लगा रहता है, तो वह
नास्तिक नहीं हो सकता, क्योंकि उपहास उड़ाने के लिये वह ईश्वर
के अस्तित्व को स्वीकार्यता दे रहा है— जब ईश्वर के अस्तित्व
को स्वीकार रहा है तो नास्तिक होने की पहली शर्त ही नहीं पूरी कर रहा। नास्तिक वह
है जिसकी कोई आस्था ही न हो... जब आस्था ही नहीं तो फिर किसी चीज का उपहास क्या
उड़ाना।
अब ऐसा कोई शख्स सामने आता है तो आस्थावादी उससे सबसे पहली अपेक्षा यह करते
हैं कि वह बताये कि वह खुद शादी कैसे करेगा— मरने के बाद उसका अंतिम संस्कार कैसे होगा,
क्योंकि इनसे जुड़े संस्कार किसी न किसी धर्म को रिप्रजेंट करते हैं।
यह असल में एक तरह की बेवकूफी है कि जिसकी कोई आस्था ही नहीं,
उससे आप रीति संस्कारों की डिमांड कर रहे हैं— मतलब आप उससे अपेक्षा कर रहे हैं
कि वह भी विवाह या अंतिम संस्कार के लिये कोई रीति संस्कार तय करें और उसके जैसी
विचारधारा वाले उन्हीं के अनुसार सबकुछ करें। फिर तो यह नास्तिकत्व भी एक अलग पंथ
हो जायेगा।
फिर बंदा आस्था ही तय कर लेगा तो नास्तिक का मतलब क्या रह गया— नास्तिकत्व एक व्यक्तिगत
सोच, निजी जीवनशैली है न कि कोई पंथ। अगर मैं कहूँ कि मैं
नास्तिक हूं तो इसकी यह शर्त कभी नहीं होगी कि मेरी पत्नी भी नास्तिक होनी चाहिये—
कि मेरे माता पिता भी नास्तिक होने चाहिये। विवाह के लिये मेरी किसी
कर्मकांड में मेरी आस्था भले न हो, लेकिन अगर पार्टनर की है
तो मुझे उसकी आस्था से प्राब्लम क्यों होगी?
आप निकाह करवा दो, फेरे पड़वा दो, कोर्ट मैरिज करवा दो— क्या फर्क पड़ना? जिसे रिश्ता निभाना है वह बिना इन
कर्मकांड के भी निभा ले जायेगा, जैसे शादी के चलन से पहले
निभाते थे और जिन्हें नहीं निभाना, वह इन धार्मिक कर्मकांड
के बावजूद भी नहीं निभाते, दुनिया में होने वाले लाखों तलाक
इस बात के गवाह हैं।
रही बात मरने के बाद अंतिम संस्कार की तो सांस थमते ही मैं खत्म, मेरी चेतना खत्म—
फिर मुझे क्या फर्क पड़ना कि मुझे जलाया गया, दफनाया
गया, चील कव्वों को खिला दिया गया या मेडिकल स्टूडेंट्स को
दे दिया गया...
इसकी परवाह उन्हें होती है जिन्हें मरने के बाद के जीवन की परवाह होती है।
जिसकी इस चीज में आस्था ही नहीं उसे क्या फर्क पड़ना... यहां भी मरने वाले के आसपास
के लोग मैटर करते हैं कि वे दाह संस्कार अपनी आस्था के हिसाब से ही करेंगे तो मुझे
उनकी आस्था से एतराज क्यों हो?
एक नास्तिक की पत्नी आस्थावान हो सकती है— उसके माता पिता आस्थावान हो सकते हैं।
Written by Ashfaq Ahmad
Post a Comment