आस्था बनाम तर्क 2
नाम सांस्कृतिक होते हैं न कि धार्मिक
इसके सिवा एक सवाल लोग यह भी उठाते हैं कि आपकी आस्था नहीं तो आप नाम क्यों नहीं बदल लेते?
मतलब आप इस्लामिक कांसेप्ट में यकीन नहीं रखते तो अपना नाम अशफाक की जगह अशोक रख लीजिये— लेकिन अशोक तो हिंदू हो जायेगा। सुझाओ कोई ऐसा नाम जिससे किसी धर्म की महक
न आती हो— क्या नास्तिकत्व कोई पंथ है जिसके अलग पहचान वाले
कोई नाम होते हैं?
यह अल्पज्ञान है कि नाम धार्मिक होते हैं। नाम असल में कल्चरल होते हैं।
भारत में ही आपको कई निहाल सिखों और मुसलमानों में मिल जायेंगे— कई अब्राहम ईसाइयों
मुसलमानों में मिल जायेंगे— कई अयान, कबीर,
राजा, रानी, सारा,
शीबा जैसे नाम हिंदू मुसलमान दोनों में मिल जायेंगे।
भारत नेपाल के बौद्ध, हिंदू धर्म में समान नाम मिलेंगे— लेकिन
जापान पंहुचेंगे तो बौद्ध मत में भारतीय नाम नहीं बल्कि जापानी अकीरा, अमारा, जिआन, शिजूका जैसे नाम
मिलेंगे और यही बौद्ध चीन में मिलेंगे तो चीनी संस्कृति के हिसाब से ब्रूस ली,
वांग ली, सू ची, हान शी
जैसे नाम मिलेंगे।
मलेशिया इंडोनेशिया में मुस्लिम्स के नाम उनके कल्चर के हिसाब से मिलेंगे, अफ्रीका में उनकी
संस्कृति के हिसाब से और योरप में मुसलमानों ईसाइयों के ढेरों नाम समान मिलेंगे।
भारतीय मुसलमान चूँकि अरबी कल्चर को फॉलो करता है तो नाम भी अरेबिक ही रखता
है और इसलिये यह धारणा बना ली है कि यह नाम मुसलमानों के होते हैं, जबकि क्रिश्चियनिटी आने
से हजारों साल पहले भी योरप में जोसफ और पीटर पाये जाते थे और इस्लाम आने से पहले
भी अरब में उमर, इस्माईल, इब्राहीम
पाये जाते थे।
सन 610 में हजरत मुहम्मद ने खुद के नबी होने की घोषणा की, मुसलमान
का खिताब दिया और इस्लाम की तब्लीग शुरू की, लेकिन उससे पहले
चालीस साल तक उनका नाम वही था। सबसे पहले ईमान लाने वाली बीबी खुदीजा का नाम पहले
भी खुदीजा ही था...
हजरत उमर, हजरत अबू बक्र, हजरत उस्मान या हजरत अली के नाम ईमान लाने से पहले कुछ और नहीं थे। लोगों
के मुसलमान होने से पहले अरब में इसाई और यहूदी कबीलों की भरमार थी और उनके नाम तब
भी वही थे जो ईमान लाने के बाद रहे— क्योंकि नाम मजहब से
नहीं थे, नाम अरबी कल्चर से थे।
तो इस ख्याल को दिल से निकाल दीजिये कि किसी भी नाम पर किसी भी धर्म का
कॉपीराईट होता है... और कोई आस्थावान नहीं है तो उससे यह कहना कि वह अलग पंथ की
तरह अपना नाम, अपनी वैवाहिक रीति, या अपना अंतिम संस्कार निर्धारित
करे— असल में लोगों का अल्पज्ञान भर है।
शव संस्कार एक आदिकालीन परंपरा है न कि इसे धर्म ने पैदा किया
नास्तिक और आस्तिक की चली आ रही अंतहीन बहस में यह यह तानें अक्सर आपको
सुनने को मिल जायेंगे— नाम और शादी के सिवा जो तीसरा बड़ा ताना है वह यह कि जलाये जाओगे या दफनाये
जाओगे?
लोगों को यह लगता है कि शव संस्कार पर धर्म का एकाधिकार होता है, इसीलिये अपने हिसाब से
वे बहुत जहानत भरा सवाल पूछते हैं— लेकिन क्या यह वाकई जहानत
है? अगर आपसे मानव विकास यात्रा के बारे में पूछा जाये तो
तौरात, इंजील और कुरान वाले आदम और हव्वा को ला कर खड़ा कर
देंगे और वेद वाले मनु और शतरूपा को।
अगर उनसे प्रमाण मांगा जाये कि इंसान ने क्रमिक विकास के सहारे मौजूदा रूप
पाया है (जो कि पुरातत्विक रूप से प्रमाणित भी हो चुका है) या दुनिया के पहले
मानवों से ही आधुनिक मानव की शुरुआत हो गयी थी, जिसने कपड़े पहनने से लेकर खेती करने तक सब
उसी दौर से शुरू कर दिया— तो आस्तिक दूसरे विकल्प पर ही
जायेंगे और आप इसका कोई सबूत मांगिये तो उनके पास किताबें हैं... इससे ज्यादा किसी
सबूत की जरूरत ही नहीं।
चलिये उनकी सुविधा के हिसाब से तकनीकी त्रुटियों को हटा कर हम मान लेते हैं
कि अफ्रीका से शुरु हुए जिस ह्यूमन ट्री की हम सब शाखायें हैं, वह ह्यूमन ट्री एडम ईव
या मनू शतरूपा से ही शुरु हुआ था और 1.4 करोड़ पूर्व के
रामापिथेकस, कीनियापिथेकस के जीवाश्मों से होता
आस्ट्रेलोपिथेकस, पैरेन्थ्रोपस, जिन्जिथ्रोपस,
लूसी को पार करता हुआ होमो हेबिलस, होमो
हीडलबर्गोंसिस, होमो इरेक्ट्स (इरेक्ट्स, पेकिंसिस, मोरीटेनिकस) से होता होमो सेपियंस
(नियेनडरथेलसिस, फोसिलिसिस, सेपियंस)
तक पंहुचा जिसके वर्तमान आधुनिक रूप हम हैं।
अगर नाम के मसले पर देखें तो यह लोग अफ्रीका से निकल कर पूरी दुनिया में
फैले और अपनी अलग-अलग सैकड़ों मान्यतायें गढ़ीं और संस्कृतियां विकसित की। नाम
इंसान की पहचान होते हैं जिसकी जरूरत जब से इंसान ने बोलना शुरू किया, तब से रही होगी— तो तभी से नाम अपने कल्चर के हिसाब से रखने शुरू किये गये। ऐसा नहीं है कि
ईसा के आने से पहले योरप में जोसेफ, पीटर, फिलिप नहीं हुआ करते थे या अरब में इस्लाम के आगमन से पहले मुहम्मद,
अबु बक्र, उस्मान जैसे नाम नहीं हुआ करते
थे... खुद नबी की बीवी, दोस्तों, साथियों
या खानदान वालों के नाम कलमा पढ़ने से पहले भी वही थे जो बाद में रहे, न कि पहले कोई और नाम हुआ करते थे।
चूँकि इस्लाम का ऐसा प्रावधान बना कर
रख दिया गया है कि मजहब के साथ अरबी संस्कृति को भी अपनाना पड़ेगा तो अरेबिक नामों
पर इस्लाम का अधिपत्य मान लिया गया, जबकि ऐसा हर्गिज नहीं
है।
बॉडी टर्मिनेशन की अनेक विधियाँ चलन में रही हैं
इसी तरह शवों के दाह संस्कार का मसला है— धर्म देखेंगे तो सनातन पांच हजार साल
पुराना होगा, बौद्ध ढाई हजार, इब्राहीमी साढ़े तीन हजार (जो बाद में लगभग करीब ढाई,
दो और डेढ़ हजार साल पहले यहूदी, इसाई और
इस्लाम में बंट गया) साल पुराना है लेकिन इंसानी सभ्यता तो उससे हजारों, बल्कि लाखों साल पहले से है... फिर वे कैसे संस्कार करते होंगे शवों का।
एक बात ध्यान रखिये कि इसे धार्मिक रीति बहुत बाद में बनाया गया, मुख्य मकसद शवों को नष्ट करना होता था, होता है और
आगे भी यही रहेगा।
इनमें सबसे प्राचीन विधियाँ तो दफन करना, शव को जानवरों, परिंदों
के लिये छोड़ देना ही रहा है— मछुआरों की कई प्रजातियां शवों
को समुद्र में डुबा कर दाह संस्कार करती हैं। भारत में यह दफन करने, नदियों में बहाने और चिता के रूप में जलाने के रूप में हजारों साल से प्रचलित
रहा है। किसी दौर में दाह संस्कार के रूप में समर्थ व्यक्ति के मकबरे भी बनते थे
और शवों को मसाले लगा कर ममी के रूप में सुरक्षित भी रखा जाता था।
अफ्रीका, अमेजान के कई कबीलों में और तिब्बत में ही शवों को जानवरों के लिये छोड़
देते हैं। पहले कई कबायली प्रजातियां अपने मृत लोगों के शवों को चील कव्वों के
लिये छोड़ देते थे, आज भी मुंबई में पारसियों का समुदाय टावर
ऑफ साइलेंस में शवों को खुला छोड़ देता है कि चील कव्वे खा सकें। भारत से बाहर शवों
को नष्ट करने की विधी के रूप में दफन करना ही मुख्य प्रचलन है।
Faith versus Logic |
इसलिये कोई आपकी आस्था से इत्तेफाक नहीं रखता तो वह उसका संवैधानिक और
इंसानी अधिकार है... आप सहमत न होइये उससे लेकिन यह बेवकूफाना ताने मत दिया कीजिये
कि अपना नाम बदल लो, शादी कैसे करोगे या दफनाये जाओगे या जलाये— क्योंकि
नाम कल्चरल होते हैं, उन पर धर्म की मोनोपली नहीं होती,
शादी में दूसरे पक्ष की इच्छा भी अहमियत रखती है और शव संस्कार बॉडी
टर्मिनेशन की एक प्रक्रिया है जो मानव सभ्यता के शुरुआती दौर से चली आ रही है—
हर दफन का मतलब मगफिरत और जन्नत की ख्वाहिश नहीं होती और हर चिता
में जलने वाला मोक्ष का अभिलाषी नहीं होता।
नैतिक पतन या उत्थान आस्था अनास्था से परे होता है
बाकी जो और मुख्य इल्जाम हैं— उनमें एक है नैतिकता से संबंधित सामाजिक
पतन का। किसी आस्थावान के लिये यह धर्म जनित है, जबकि इसका
धर्म से कोई रिश्ता नहीं। वे कहते हैं कि नास्तिक बहन से सेक्स क्यों नहीं कर सकते
तो इसका शुद्ध जवाब नैतिकता के रूप में ह्यूमन बिहैवियर में मिलेगा वर्ना बहन से
सेक्स/बलात्कार करने वाले भाई, या बेटी से संबंध बनाने वाले
बाप तो हर धर्म में मिल जायेंगे।
इसका दूसरा जवाब यह भी है कि अगर दुनिया दो मानवों से शुरू हुई तो उनकी
पहली नस्ल, जो एक बाप के वीर्य और माँ की कोख से पैदा होने वाले थे, सब भाई बहन ही हुए (यह जुड़वा वाली थ्योरी घर रखिये, एक
कोख से पैदा सब भाई बहन ही होते हैं), तो अगली नस्ल जाहिर है
कि उनके आपसी संबंधों से पैदा हुई... उस हिसाब से फिर हम सब भाई बहन की औलाद ही
हुए, अब वह इंसान थे या जानवर यह फैसला आप खुद कीजिये।
एक इल्जाम यह आता है कि जानवर और नास्तिक में क्या फर्क है... वही फर्क है
जो इंसान और जानवर में होना चाहिये, विवेक का, दिमाग के
ज्यादा परिष्कृत होने का— क्या वे इंसान की तरह बेहतर और
बदतर का फर्क समझने में और इंसान की तरह परिस्थितियों को अपने फेवर में ढालने में
सक्षम होते हैं?
Faith versus Logic |
क्या सभी सवालों के जवाब आस्तिकों के पास होते हैं
अब आते हैं मुख्य बिंदू पर जहां प्रकृति से जुड़े अनसुलझे सवालों की एक
फेहरिस्त लेकर आस्तिक टूट पड़ते हैं कि ऐसा है तो क्यों है वैसा है तो क्यों है— यहां ध्यान देने वाली
बात यह है कि लगभग सभी बातों/सवालों को एक नास्तिक बंदा समझने की कोशिश करता है,
लेकिन आस्तिक हर उलझे सवाल का जवाब, और न समझ
में आ सकने वाली बात का जिम्मा खुदा या ईश्वर पर डाल कर हाथ खड़े कर देता है। हम तो
सवालों से जूझते हैं और जूझने का ही परिणाम है जो दुनिया भर में इतनी खोजें हुईं
वर्ना धर्म के बंधे लोग तो ईश्वर की आड़ में फरार हासिल करके ही खुद को घोषित
विजेता समझ लेते हैं...
Faith versus Logic |
वे कुदरत से संबंधित अनेकों सवाल करते हैं कि ऐसा है तो क्यों है, वैसा है तो क्यों है— जैसे यह कुदरत हमने बनाई है कि हमारे पास हर सवाल का जवाब होना चाहिये। चलिये ठीक है— हम पलट के आपका सवाल ही आपसे पूछते हैं, बताइये क्या है जवाब.... तो हंड्रेड पर्सेंटे गारंटी है इस बात की, कि उस हालत में जवाब खुदा पर जाकर रुक जायेगा— कि सब खुदा ने बनाया है, सब उसी की मसलहत है, सब उसी की कुदरत है, वह जो चाहे कर सकता है— इससे ज्यादा कोई जवाब ऐसे लोगों के पास नहीं।
सोचिये आप एग्जाम देने जाते हैं और सवाल आता है कि गैस वाले गुब्बारे ऊपर
क्यों उठ जाते हैं तो क्या लिखेंगे जवाब में— कि यह सब खुदा की मसलहत है या यह कि उनमें
हाइड्रोजन गैस भरी होती है जो भार में सबसे हल्की होती है, क्योंकि
यह विज्ञान द्वारा प्रमाणित फैक्ट आपकी जानकारी में आ चुका है।
कैसे आया— हर सवाल का जवाब खुदा पर बंद कर देने वाले किसी बंदे के जरिये, या खुदा को किनारे करके सवाल से जूझने वाले किसी बंदे के जरिये? वैसे आप इंसान को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति मानते हैं न तो उस हिसाब से
थर्ड जेंडर क्या है— क्या यह उसका कंपलीट फेलुअर नहीं?
क्या जितने भी शारीरिक रूप से अक्षम या आधे अधूरे लोग/भ्रूण पैदा
होते हैं— वे सब उस ईश्वर की नाकामी नहीं?
Written by Ashfaq Ahmad
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