आप का लखनऊ-1
आप का लखनऊ-1
अभी हाल ही में लखनऊ के कुछ ज़िम्मेदार सरबराहों ने एक प्लेटफार्म बनाया है -- आप का अवध, जहाँ लखनऊ वासी अपनी शिकायतें और सुझाव दर्ज करा सकें तो एक कलमची होने के नाते मुझे लगा कि लखनऊ में रहते, सांस लेते कुछ ज़िम्मेदारी तो मेरी भी बनती है कि उन समस्याओं की तरफ आकाओं का ध्यान खींचने की छोटी सी कोशिश करूँ जो दिखती तो सभी को हैं लेकिन अमूमन आमजन से लेकर सरकारी अधिकारी तक जिनकी तरफ से आँख बंद किये रहते हैं। यहाँ मैं उन समस्याओं से इतर लिखूंगा जिनका ज़िक्र अख़बारों या सरकारी बैठकों में होने वाली आम चिंताओं में होता है।
सांस
लेने के ख़याल
से उस हवा
का ख्याल आता
है जो लखनऊ
में शाम को
होने वाले प्रदूषण
का बोझ ढोती
है। अमीनाबाद, कैसरबाग़,
चौक, नक्खास, लालबाग़,
हज़रतगंज, चारबाग़ -- हर घने
इलाके में, जहाँ
शाम को वापसी
का ट्रैफिक होता
है -- सर्दियों में
दिन में तो
गाड़ियों से निकलता
धुआं ऊपर चला
जाता है लेकिन
शाम को जब
हवा ओस से
भारी हो जाती
है तो ये
ऊपर न उठ
कर नीचे ही
नीचे फैलता है
जो आपको इन
इलाकों में अपने
आसपास हर तरफ
महसूस होगा और
न सिर्फ आपके
सांस लेने में
दुश्वारी करेगा बल्कि आपकी
आँखों में जलन
भी भर देगा।
इसमें बड़ा हिस्सा
उन वाहनों से
निकलते धुएं का
होता है जिन्हे
पी. यू. सी.
से कुछ लेना
देना नहीं होता
और जो बेरोकटोक
शहर की सड़कों
पर दनदनाते फिरते
हैं। ट्रैफिक पुलिस
की ईमानदारी हज़रात
गंज और पॉलिटेक्निक
के अलावा कहीं
नज़र नहीं आती।
मैं सड़कों पे
दौड़ते ऐसे ढेरों
वाहन रोज़ देखता
हूँ जिनका प्रदूषण
फैलाने का मद्देनज़र
चालान हो जाना
चाहिए लेकिन वे
बेरोकटोक दौड़ते रहते हैं।
एक
समस्या है फुटपाथ
की … बचपन में
किताबों में पढ़ा
था के सड़क
वाहन चलने के
लिए होती है
और फुटपाथ पैदल
चलने वालों के
लिए, पर यही
देखता बड़ा हुआ
हूँ कि फुटपाथ
सिर्फ लोगों के
कब्ज़ा करने के
लिए होते हैं
… लोग अपने घरों
के रास्ते, जीने,
पार्किंग बनाते हैं, पान
गुटखे वाले अपने
खोखे ठेले रखते
हैं, होटल वाले
अपनी भट्टी, अपनी
बेंचे मेजें लगते
हैं, सड़क किनारे
के दुकानदार अपनी
आधी दुकान फुटपाथ
पे लगाते हैं,
कुर्सी रोड- अलीगंज
में लोगों ने
अपने गार्डन, प्राइवेट
पार्किंग भी
बना रखी
है। पैदल चलने
वालों के लिए
फुटपाथ सिर्फ हज़रात गंज
जैसी कुछ चुनिंदा
जगहों पर ही
होता है। पहले
तो फिर गनीमत
थी कि फुटपाथ
सड़क से ऊंचा
करके बनता था
तो गाड़ियों से
कुछ हद तक
सुरक्षित रहता था
लेकिन अब अलीगंज
में देखता हूँ
कि फुटपाथ सड़क
के सामानांतर ही
बनाया जाने लगा
है ताकि दुकानों,
बैंकों, होटलों के आगे
लोगों को गाड़ियां
खड़ी करने में
दिक्कत न हो
और रश ऑवर
में उस पर
आराम से गाड़ियां
भी दौड़ाई जा
सकें। पैदल चलने
वालों का क्या
है -- कहीं भी
चल ही लेंगे
… मेरे हिसाब से इससे
तो अच्छा है
कि फुटपाथ का
सिस्टम ही ख़त्म
कर दिया जाए
और पूरी चौड़ाई
में सड़क ही
बना दी जाए
जैसे अमीनाबाद से
रकाबगंज ढाल तक
बनायीं गयी है,
कम से कम
साफ़ साफ़ सड़कों
पर कब्ज़ा जमाते
वक़्त लोगों को
शायद कुछ शर्म
आये।
सड़क
से जुड़ी एक
समस्या धूल मिटटी
की भी है।
मेरी समझ में
नहीं आता कि
लखनऊ के जिम्मेदारों
को धूल-मिटटी
से कितना प्यार
है … अपवाद स्वरुप
कुछ सड़कों को
छोड़ दें तो
आप पूरे लखनऊ
में किधर भी
निकल जाएँ -- सड़क
के किनारे धूल-मिटटी तो आपको
मिले ही मिले।
इस धूल-मिटटी
की परत कहीं
कहीं एक इंच
मोटी है तो
कही पांच इंच
तक। सड़कों के
किनारे की यह
धूल-मिटटी कभी
हटाई नहीं जाती,
बस कभी कभी
सफाई-कर्मियों द्वारा
इधर से उधर
कर दी जाती
है। सड़कों के
किनारे तो छोड़िये,
यह आपको सड़क
के बीचोबीच डिवाइडर
के दोनों तरफ
मिलेगी। ये तभी
हटाई जाती है
जब कभी सड़क
बनने की नौबत
आती है। कुछ
दिन पहले मड़ियाओं
ब्रिज के डिवाइडर
के किनारे की
मिटटी में पौधे
उगते देखे थे
-- यह नज़ारा आपको
भी जब तब
अपने आसपास नज़र
आ सकता है
क्योंकि मिटटी हटाने की
तो होती नहीं
तो पेड़ पौधे
भी उगेंगे ही।
सड़क
के साथ एक
समस्या सीवर की
भी है। जहाँ
जहाँ भी ये
सीवर लाइन डाली
गयी है इसके
ऊपर की सड़क
इसके जहाँ तहाँ
खुले ऊंचे नीचे
मुँहों ने बदहाल
कर रखी है
और ऊपर से
सितम यह के
सड़क बन्नी है
तो इनकी तरफ
कोई तवज्जो नहीं
और सड़क के
पूरा होते ही
इन्हे खोद कर
सड़क फिर बर्बाद
कर दी जाती
है। सीवर लाइन
को वजूद में
आये अरसा हो
गया लेकिन अब
तक हमारे इंजीनियर
सड़क के साथ
उसका सामंजस्य बिठाना
नहीं सीख पाये।
कहीं कहीं इसके
ढक्कन आपको सड़क
से नीचे मिलेंगे
तो कहीं ऊपर
-- एक जैसे या
सड़क के बराबर
तो कोई एकाध
ही मिल पायेगा।
सड़कों
से जुड़ी एक
भीषण समस्या अतिक्रमण
की भी है।
मैं अक्सर सीतापुर
रोड या हरदोई
रोड से गुज़रता
हूँ और यह
देख कर अफ़सोस
करता हूँ की
सड़कों की चौड़ाई
तो काफी है
लेकिन लोगों ने चलने
के लिए बहुत
कम सड़क छोड़ी है
-- इसका ज्यादातर हिस्सा तो
लोगों ने लील
रखा है। फुटपाथ
तो वैसे भी
कही कहीं दिखते
हैं, उससे लगी
आधी सड़क ठेले,
रेड़ी वाले, दुकानों
के बारदाने और
लोगों की पार्किंग
ने ले रखी
है। ये नज़ारा
सिर्फ दो सड़कों
का नहीं बल्कि
कमोबेश हर सड़क
का है। इस
अतिक्रमण की वजह
से बार बार
जाम की स्थिति
उत्पन्न होती है।
इन सड़कों को
उनके वास्तविक रूप
में आज़ाद कराने
की कोई ईमानदार
कोशिश हाल के
वर्षों में मैंने
तो देखी नहीं
-- जो जैसा है
वैसे ही चले
जा रहा है।
सीतापुर रोड पर
जाने वाली बसें
पहले अलीगंज होकर
जाती थी तो
भी गनीमत थी
पर अब वे
उस पक्केपुल से
गुज़र कर यातायात
को और कुरूप
कर रही हैं
जो पहले से
संकरा था और
उस पे सितम
यह के पुल के
ही एक सिरे
पर फलों की
रेडियां भी लगती
हैं। कई नवाब
बीच रास्ते गाड़ी
खड़ी करके खरीदारी
भी करते हैं
-- उनके पीछे जाम
लगे तो लगे,
उनकी बला से
... और ये पटरी
दुकानदार सिर्फ पक्केपुल पर
हैं, ऐसा भी
नहीं है -- यह
सभी पुलों पर
मिलेंगे, कही काम
तो कही ज्यादा।
सड़कों
पे रोज़ लगते
जाम का एक
कारण लोगों का
गाड़ी पार्क करने
का शहाणा अंदाज़
भी है। कहीं
भी बेतरतीब गाड़ी
खड़ी करके चलते
बनना शहर के
लोगों का मिजाज़
है जो जाम
की शक्ल को
और बदतर कर
रहा है। हर
साल हज़ारों नई
गाड़ियों का बोझ
शहर की सड़कों
पर बढ़ता है
लेकिन इन गाड़ियों
के लिए नई
न सही मौजूदा
सड़कों को ही
उनके पूरे आकार
में मुक्त करना
तो एक हल
हो सकता है
जिसकी तरफ अब
तक कोई ध्यान
नहीं दिया गया।
कम से काम
उन लोगों को
तो चेताया ही
जाना चाहिए जो
सड़कों के किनारे
को अपनी निजी
पार्किंग की तरह
इस्तेमाल कर रहे
हैं।
यह
तो हुई शिकायतें
-- अब कुछ सुझाव
अगले भाग में।
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