हिंसा और सोशल मीडिया
हिंसा और सोशल मीडिया
कल
परसों में फेसबुक,
ट्विटर पर पोस्ट
हुई एक फोटो
देखी, जिसमे कुछ
दाढ़ी वाले मुसलमान
हैं और
एक घायल व्यक्ति,
जिसे किसी विराट
ने ट्विटर पे
और बाद में
मेरे एक फेसबुक
फ्रेंड राहुल ने फेसबुक
पे रीट्वीट के
ज़रिये पोस्ट किया,
इस पे एक
कहानी भी लिखी
है ... इसे देख
के सहसा मन
में ख्याल आया
की हम पढ़े
लिखे लोग भी
धर्म के नाम
पर क्षणिक आवेश
में बह कर
कितनी आसानी से उन
साजिश-कर्ताओं के
हाथों का मोहरा
बन जाते हैं,
जो मेल-जोल,
संपर्क और दोस्ती
बढ़ाने-निभाने वाली
फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्स-अप जैसी
सोशल साइट्स को
ऐसे भड़काऊ और
उकसाऊ कंटेंट के
ज़रिये अफवाहें फैलाने,
माहौल को अशांत
और अस्थिर करने
के लिए एक
ज़रिये के रूप
में इस्तेमाल करते
हैं।
बिना
जाने समझे कि
इस तरह के
कंटेंट का उद्देश्य
क्या हो सकता
है, बिना सोचे
के इस तरह
के कंटेंट की
कोई प्रमाणिकता नहीं
होती, हम ऐसे
कंटेंट को पोस्ट
और शेयर करने
लग जाते हैं।
मेरा दावा है
कि तस्वीर में
दिखने वाले इस
शख्स को न
इसे ट्विटर पर
पोस्ट करने वाला
विराट जानता होगा
न फेसबुक पे
पोस्ट करने वाले
राहुल को पता
होगा।
हाल
के कुछ वर्षों
में तालिबान प्रभावित
उत्तर-पूर्वी पाकिस्तान,
पूर्व के अफ़ग़ानिस्तान
और वर्तमान के
ईराक़ में कट्टरपंथी
तालिबानियों, आतंकवादियों ने हज़ारों
ऐसी हत्याएं की
होंगी और दहशत
फैलाने, और अपना
दबदबा कायम करने
के लिए वह
खुद ही ऐसी
तस्वीरें और वीडियो
इंटरनेट और इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया में प्रेषित
करते रहते हैं।
उन्होंने इस तरह
से कई हिन्दुओं,
बौद्धों, ईसाईयों, शियाओं को
ही नहीं अपितु
अपने हमक़ौम विरोधियों,
बाग़ियों और जासूसी
या मुखबरी के
शक में अपने
साथ के लोगों
को भी इसी
बेरहमी से मारा
होगा -- तस्वीर में दिखने
वाला शख्स इनमे
से कोई भी
हो सकता है,
उसे लेकर ये
दावा करना कि
वह एक बांग्लादेशी
हिन्दू है जिसे
एक मस्जिद से
जुमे की नमाज़
पढ़ कर निकले
कुछ मुसलामानों ने
पीट पीट कर
मार डाला, सिर्फ
उकसाने और अशांति
फैलाने की कोशिश
के के अलावा
और कुछ नहीं।
कुछ
वर्ष पूर्व तालिबान
ने एक वीडियो
जारी किया था
जिसमे ढेरों राईफल
धारियों के के
बीच एक बच्चा
एक बंधे हुए
व्यक्ति का सर
काटता है। यह
व्यक्ति उनका विरोधी
था जिसकी कोई
धार्मिक पहचान उन्होंने नहीं
बताई थी लेकिन
आज अगर उसी
वीडियो से ये
फोटो कैप्चर करके
और यह लिख
के पोस्ट कर
दी जाए की
बंधा व्यक्ति एक
हिन्दू है, जिसे
पाकिस्तान या ईराक़
के मुस्लिम बच्चे
काट रहे हैं
तो मेरा दावा
है कि फोटो
वाइरल हो जाएगी
और लाखों लोग
उस पर यकीन
करके आक्रोशित हो
जायेंगे, जबकि यह
सोचने की
तकलीफ करने वाले
कम ही मिलेंगे
कि इस कंटेंट
का उद्देश्य क्या
है और इसकी
सच्चाई क्या है।
पिछले
कई वर्षों के
दौरान म्यांमार में
बौद्ध उग्रपंथियों ने
असंख्य रोहिंग्या मुसलामानों की
हत्याएं की, उनके
घर जलाये-फूंके,
बस्तियां उजाड़ी, दुकान कारोबार
लूटे, बर्बाद किये,
उनके सामूहिक नरसंहार
किये लेकिन दो साल
पहले जुलाई-अगस्त
२०१२ में अचानक
इससे जुड़ी तस्वीरों
की सोशल साइट्स
पर बाढ़ सी
आ गयी, जैसे
यह सब अभी
ही का ताज़ा
घटनाक्रम हो और
लोग उकसावे में
आ गए। एक
तस्वीर थी जिसमे
एक बस्ती में
कुछ उत्तर-पूर्वी
लोग एक लड़की
के कटे जिस्म
के हिस्से बेच
खरीद रहे थे
... पहली तस्वीर के साथ
यह कहा गया
कि यह तस्वीर
म्यांमार की है
जहाँ एक मुस्लिम
लड़की को काट कर
उसके जिस्म
के हिस्सों को
बेचा जा रहा
है -- करीब दस दिन
बाद उसी तस्वीर
को फिर देखा
जिस पर लिख
दिया गया था
की फोटो असम
की है जहाँ
मुसलमान हिन्दू लड़कियों के
साथ यह कर
रहे हैं। पहली
सारी तस्वीरें पाकिस्तान
से पोस्ट हुई
थीं (जो बाद
की जाँच में
साबित हुआ), जिससे
मुसलमानों को उकसाने
का दौर शुरू
हुआ और बाद
की तस्वीरें एडिटिंग
की कारीगरी के
साथ भारत से
ही पोस्ट की
गयीं, जिसमे यह
बता कर कि
असमी-बांग्लादेशी मुस्लिम्स
हिन्दुओं को इस
तरह मार रहे हैं -- हिन्दुओं
को भड़काने की
कोशिश की गयी।
तस्वीरें वही थीं
पर प्लेटफार्म बदल
गए। परिणाम-स्वरुप
पूरे देश में
उत्तर पूर्व के लोगों
के साथ हिंसा
और पलायन का
दौर शुरू हो
गया।
कुछ
इसी तरह पिछले
साल मुज़फ्फरनगर के
हालात बिगाड़ने के
लिए भी इन
साइट्स का ऐसा
ही भरपूर दुरूपयोग
किया गया था।
ऐसा क्यों होता
है कि जब
किसी बड़े संकट
के समय हमें
धैर्य और आपसी
सौहार्द की सबसे
ज्यादा ज़रुरत होती है
तब हम खुद
को एक इंसान समझने के
बजाय सिर्फ हिन्दू
या मुसलमान, शिया
या सुन्नी मानने
लग जाते हैं
और अफवाहों के
दौर में खुद
भी साज़िश-कर्ताओं
के हाथों का
मोहरा बन जाते
हैं।
हमारी
समस्या यह है
कि हमारे पास
ऐसे किसी कंटेंट
का विरोध करने
के विकल्प नाम
मात्र होते हैं
और उसमे भी
कार्रवाई तभी होती
है जब आमिर
खान जैसा कोई
सक्षम व्यक्ति अपने
खिलाफ पोस्ट हुए
किसी गलत और
भ्रामक कंटेंट के खिलाफ
एक्शन ले।
पहली
बार देश में
सोशल साइट्स से
जुड़ा कोई व्यक्ति
प्रधानमंत्री बना है
जो न सिर्फ
इस माध्यम की
अहमियत समझता है बल्कि
इसके उपयोग-दुरूपयोग
से भी वाकिफ
है। हम कमज़ोर
सही, मगर एक
उम्मीद तो कर
सकते हैं कि
भविष्य में फेसबुक,
ट्विटर और व्हाट्स-अप जैसी
सोशल साइट्स पर
ऑनलाइन थाने और
शिकायत केंद्र खोले जाएंगे
जहाँ कोई भी
जागरूक नागरिक ऐसे किसी
भी उकसाऊ-भड़काऊ
कंटेंट के खिलाफ
शिकायत कर सके
और ज़िम्मेदार लोग
शिकायत को त्वरित
तौर पर संज्ञान
में लेते हुए
न सिर्फ आपत्तिजनक
कंटेंट को हटा
सकें अपितु अगर
ऐसा करने
वाला भारत में ही
है तो उसके
खिलाफ कड़ी कानूनी
कार्रवाई भी कर
सकें … वरना हमारे
सामने खाड़ी देशों
में हिंसा का
ताज़ा दौर शुरू
हो चुका है,
जिसमे हज़ारों मरे
हैं और हज़ारों
मरेंगे, उनकी तस्वीरें
और वीडियो भी
नेट पर वाइरल
होंगे, जिनमे हिंसा के
शिकार लोगों को
कोई सुन्नी बताएगा,
कोई शिया, कोई
हिन्दू तो कोई
ईसाई-यहूदी। वक़्त
रहते संभल जाना
बाद में अफ़सोस
करने से लाख
बेहतर है। अब
यह हम पे
हैं कि हम
हिंसा के शिकार
लोगों के प्रति
सच्ची संवेदना रखते
हैं या उनके नाम पर
अपनी कम्यूनिटी के
लोगों को उकसाने-भड़काने में निमित्त
मात्र बनते हैं।
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