विकास की माया निराली
विकास की माया निराली
आख़िरकार माँ मेनका ने बेटे वरुण को डांट ही दिया कि अमेठी में पिछले पैंतालीस साल से कोई विकास नहीं हुआ। कई लोगों को ये पैंतालीस साल का निश्चित आंकड़ा शायद समझ में न आया हो क्योंके बीजेपी के नेता तो सीधे ६० साल ही बोलते हैं, तो मैं बता दूँ कि पैंतालीस साल पहले मेनका जी के पति वहाँ के सांसद हुआ करते थे और तब वह क्षेत्र बोस्टन या लॉस एंजेलिस हुआ करता था, अमेठी तो बाद के वर्षों में हो गया। अजीब स्थिति हो गयी थी -- एक भाजपाई पैराट्रूपर स्मृति ईरानी अमेठी पहुंची, अपनी दैवीय और दिव्य दृष्टि से एक दो दिन में ही पूरे अमेठी का अवलोकन कर लिया और टीवी पे निर्णय सुना दिया कि अमेठी में कोई विकास नहीं हुआ जबकि पड़ोस के सुल्तानपुर में उन्हीं कि पार्टी के दूसरे पैराट्रूपर वरुण गांधी लोगों को बता रहे थे कि अमेठी में राहुल ने अच्छा काम किया है।
बहरहाल,
चुनाव का वक़्त
हो और नेताओं
को विकास बाबू
की नकारात्मकता और
सकारात्मकता न सूझे
तो बेचारा विकास
ही क्या। विधानसभा
और लोकसभा चुनावों
के बीच के
वक्फे में इस
विकास नामी जीव
की कोई पूछ
नहीं होती और
बेचारा घरों के
कोनों में पड़ा
धूल फांकता रहता
है लेकिन चुनाव
आते ही इस
जीव की कदर
हो जाती है,
इसे साफ़ सुथरा
करके, नहला धुला
करके पूजा अर्चना
करके इसे कंधे
पर सवार करके
रोड शो करने
निकल पड़ते हैं।
सत्तापक्ष के लोग
इसके अपने साथ
होने का दावा
करते हैं तो
विरोधी इसके सिरे
से गायब होने
का।
पर
इन दोनों की
रस्साकशी में आम
जनता चुटकियां लेकर
बड़ी दिलचस्पी से
इनकी व्याख्या सुनती
है। जैसे स्मृति
ईरानी को या
कुमार अविश्वास को
अमेठी पहुँचते ही
विकास नदारद दिखा
-- मेनका को अमेठी
में पैंतालीस साल
से कोई विकास
न दिखा जैसे
स्वयं उन्होंने आंवला
और पीलीभीत में
सांसद रहते विकास
को घर घर
पहुंचा कर विकास
नगर बना दिया
हो। या राजबब्बर
को ग़ाज़ियाबाद पहुँचते
ही वहाँ की
दुर्दशा तो दिख
गई लेकिन फ़िरोज़ाबाद
में सांसद रहते
उन्होंने कितना विकास किया
पता नहीं। जैसे
मुरली मनोहर जोशी
को कानपुर पहुँचते
ही वहाँ की
समस्याएं दिखनी शुरू हो
गई जो उन्हें पिछले
दस सालों में
वाराणसी में नहीं
दिखीं, वही वाराणसी
जहाँ मोदी पहुँचते
ही वादा करने
लगे कि वाराणसी
का विकास तो
अब होगा।
मतलब अब तक
नहीं हुआ था
! जितने भी सांसद
सीट बदलते हैं
और नई जगह
पहुँचते हैं उन्हें
समस्याओं के अम्बार
दिखने लगते हैं
और वह क्षेत्र
विकास के नाम
पर पैंतालीस-पचास
साल पिछड़ा नज़र
आने लगता है
लेकिन अपने क्षेत्र
में सांसद रहते
उन्होंने कौन से
विकास के झण्डे
गाड़े -- इसका जवाब उनके पास नहीं
होता।
पर
यह विकास तब
और ज्यादा हास्यास्पद
हो जाता है
जब मोदी वाराणसी
पहुँच कर वहाँ
की दुर्दशा पर
अपनी पीड़ा दिखाएँ
या राजनाथ लखनऊ
पहुँच कर यहाँ
की समस्याएं देखना
शुरू कर दें।
ऐसा करते वक़्त
यह महानुभाव भूल
जाते हैं कि
लखनऊ हो या
वाराणसी, मेयर-विधायक
हों या सांसद,
पिछले पंद्रह-बीस
सालों से ज्यादातर
वक़्त इन्हीं की
पार्टी के लोग
कुर्सीनशीन रहे हैं।
अगर लखनऊ में
समस्याएं हैं तो
ज़िम्मेदारी उन्हीं के लोगों
पर है और
आज अगर वाराणसी
अपनी दुर्दशा पर
व्यथित है तो
भाजपाई विधायक, मेयर और
मुरली मनोहर जोशी
अब तक क्या
कर रहे थे
जो अब मोदी
गंगा में जौ
बो कर दिखाएंगे।
नए क्षेत्रों में
जाकर चुनाव लड़ने
वाले जोशी, राजनाथ,
राजबब्बर, जैसे जितने
भी नेता हैं,
जब उस क्षेत्र
की समस्याओं या
पिछड़ेपन की बात
करें तो उनसे
यह ज़रूर पूछना
चाहिए कि अपने
पिछले क्षेत्र में
सांसद रहते उन्होंने
कितना विकास किया
था ?
हकीकत
में विकास पाण्डेय,
विकास राजवंशी या
विकास खान -- आप कुछ
भी कह लें
पर यह उफनती
गंगा है जिसका
वेग सम्भालना किसी
एक भगीरथ के
वश में नहीं।
किसी शहर में
मेयर/नगरपालिका अध्यक्ष,
विधायक और सांसद
जबकि ग्रामीण क्षेत्र
में प्रधान/ब्लाक
प्रमुख, विधायक, और सांसद यह तीन
मुख्य स्तम्भ होते हैं
जिनकी ज़िम्मेदारी क्षेत्र
के समग्र विकास
की होती है
लेकिन विडंबना यह
है कि अक्सर
यह तीनों स्तम्भ
एक पार्टी के
नहीं होते।
अब
जैसे अमेठी/राय
बरेली को लें
-- वहाँ चुनाव लड़ने वाले
सारे प्रत्याशी विकास
न होने का
सारा ठीकरा सोनिया/
राहुल पर ऐसे
फोड़ते हैं जैसे
सारी ज़िम्मेदारी उन्हीं
की थी, जबकि
दोनों ही क्षेत्रों
में ज्यादातर प्रधान/विधायक सपा-बसपा
के हैं और
उन्हें इस चुनाव
में आरोपों से
मुक्ति मिल गई
है कि किसी
समस्या के लिए
वह ज़िम्मेदार नहीं।
यही स्थिति हर
जगह की है
और विधानसभा के
चुनाव के वक़्त
स्थिति एकदम उलट
होती है जब
विकास न होने
का सारा ठीकरा
विधायकों के सर
फोड़ा जाता है
और तब सांसदों
को मुक्ति दे
दी जाती है
और वे उत्तरदायित्व
की परिधि से
बाहर हो जाते
हैं।
हकीकत
यह है कि
सभी चुने गए
प्रत्याशियों पर विकास
की ज़िम्मेदारी होती
है और वह
तभी होता है
जब तीनों तरह
से चुने गए
लोग एक ही
पार्टी या एक
विचारधारा के हों
और अपने काम
के प्रति ईमानदार
हों और दुर्भाग्य
से ऐसा बहुत
कम जगहों पर
हो पाता है।
इस बात को
जनता भी भली-भांति समझती है
इसलिए दिखावे के
तौर पर तो
वह भी हमारे घाघ नेताओं
को फॉलो करके,
उन्हीं की तरह
झूठे आक्रोश के
साथ अखबारी नुमाइंदों
और टीवी कैमरों
के सामने तो
'विकास-विकास' ज़ोर-शोर
से चिल्लाती है
लेकिन जब वोट
देने का वक़्त
आता है तो
वह भी इस
विकास नामी जीव
को वापस कहीं
दफ़न करके अपनी
जाति, बिरादरी, धर्म,
आरक्षण, व्यक्तिगत सम्बन्धों के
आधार पर ही
वोट डालती है।
अगर वोट देने
का पैमाना विकास
रहा होता तो
ज्यादातर सांसद, विधायक, मेयर/नगरपालिका अध्यक्ष एक
बार के बाद
दोबारा जीत ही
नहीं पाते।
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