दो जगहों से चुनाव के साइड इफेक्ट
दो जगहों से चुनाव के साइड इफेक्ट
देखा जाये तो दो जगहों से चुनाव लड़ने के लिए इस तर्क का सहारा लिया गया था कि राष्ट्रीय स्तर का कोई नेता अपनी सर्व स्वीकार्यता साबित करने के लिए दो जगहों से चुनाव लड़ सकता है लेकिन क्या वाकई यह तर्क कोई प्रासंगिकता रखता है ? इस तर्क का सहारा लेकर तो राष्ट्रीय राजनीति के धुरंधर ही नहीं, ढेरों क्षेत्रीय क्षत्रप भी न सिर्फ चुनाव लड़ सकते हैं बल्कि जीत कर भी दिखा सकते हैं, लेकिन इस तरह तो कितनी ही सीटें चुनाव के बाद खली हो कर फिर उपचुनाव का मुंह देखेंगी। क्या इस छूट का कोई गहन विश्लेषण भी किया गया था कि इसका कितना उपयोग होगा और कितना दुरूपयोग, क्योंकि आज के दौर में नेता या तो असुरक्षा के डर से दो जगह से चुनाव लड़ता है या फिर समीकरण साधने वाले दूसरे कारकों से।
लेकिन
सही मायने में
यह दो जगह
से चुनाव लड़ना
सीधे सीधे पूरी
चुनावी प्रक्रिया से धोका
करने जैसा है।
कुछ लोग इसे
सिर्फ उपचुनाव के
अतिरिक्त खर्च के
रूप में एकमात्र
नुकसान का कारण
ही समझते हैं
लेकिन क्या वाकई
ऐसा है ? ज़रा
याद कीजिये सोनिया
गांधी का पहला
संसदीय चुनाव … सुरक्षित सीट
से लड़ाने और
जीत सुनिश्चित करने
के चक्कर में
उन्हें अमेठी के साथ कर्नाटक
के बेल्लारी से
भी चुनाव लड़ाया
गया, जहाँ उनका
मुक़ाबला करने के
लिए बीजेपी की
तरफ से सुषमा
स्वराज पहुंची और अपनी
पूरी ताक़त से
चुनाव लड़ीं लेकिन
फिर भी उन्हें
हार का मुंह
देखना पड़ा और
श्रीमती सोनिया गांधी दोनों
ही जगहों से
चुनाव जीत गयीं।
महीने भर के
हाई वोल्टेज ड्रामे
के बाद जो
रिजल्ट सामने आया उसमे
सुषमा जी ने
हार कर बेल्लारी
से किनारा कर
लिया और सोनिया
जी ने जीत
कर भी अमेठी
अपने पास
रखते हुए बेल्लारी
सीट का त्याग
कर दिया और
बेल्लारी के लोग
खुद को मूर्ख
बनते देखते रहे।
इस
आम चुनाव में
जनता के साथ
यह धोखाधड़ी श्री
नरेंद्र मोदी और
श्री मुलायम सिंह
करने जा रहे
हैं और मज़े
की बात यह
है कि लोग
सब जानते बूझते
एक बार और
मूर्ख बनेंगे।
सवाल
सिर्फ चुनावी खर्च
का नहीं -- किसी
जगह सिर्फ दो
ही लोग तो
नहीं लड़ते। एक
उदाहरण के तौर
पर अगर वाराणसी
को ही ले
लें -- कुल नामांकन
२० से कम
क्या होंगे (अभी
तक फाइनल नहीं
हुए), २०-२५
दिन की भागदौड़,
अथक प्रचार, जुलूस,
जनसभाएं, रैली और
सैकड़ों वाहनों में पड़ता
ईंधन, चुनाव आयोग
की लिमिट वाला
७० लाख प्रति-प्रत्याशी खर्च भी
जोड़ लें तो
सारे प्रत्याशियों का
5 करोड़ के आसपास कुल
लिखित खर्च
(हकीकत में जो
१५ से २०
करोड़ के आसपास
होगा), और इन
सब के बीच
वाराणसी के मतदाताओं
का जूनून, उनकी
बहसों में हिस्सेदारी,
चुनावों में सक्रियता,
सबकुछ बेकार ही
जाने वाला है
-- यह तय है,
लेकिन फिर भी
यह होके रहेगा।
जहाँ तक अचूक
सम्भावना की बात
करें तो मोदी
की जीत के
साथ ही उनका
पलायन भी निश्चित
है क्योंकि दो
जगहों से चुनाव
जीतने वाले महारथी
अक्सर जीत के
बाद अपनी घरेलू
सीट को प्राथमिकता
देते हैं और
बाहरी सीट त्यागते
हैं जैसे सोनिया
गांधी ने बेल्लारी
को त्यागा था
या मुलायम सिंह
आजमगढ़ को त्यागेंगे।
वाराणसी
हो या आजमगढ़,
दोनों ही जगह
एक व्यर्थ की
महाभारत में अपनी
ऊर्जा खपाई जायेगी
-- न सिर्फ जीतने
वाले प्रत्याशी के
सिवा बाकी प्रत्याशियों
के पैसे, उनकी
मेहनत और भागदौड़
की बर्बादी होगी
बल्कि इन क्षेत्रों
की जनता की
सक्रियता भी किसी
काम की नहीं
साबित होने वाली।
मेरे हिसाब से
क्या ऐसी स्थिति
में हारने वाले
सभी प्रत्याशियों को
विजयी प्रत्याशी को
अदालत में नहीं
खीचना चाहिए कि
जब उन्हें वह
सीट छोड़नी ही
थी तो दूसरों
के पैसे क्यों
खर्च कराये -- उनसे
मेहनत क्यों करायी
? क्योंकि कई प्रत्याशी
तो चुनाव में
अपनी इतनी पूँजी
और सामर्थ्य खर्च
कर देते हैं
कि जल्दी फिर
चुनाव लड़ने कि
स्थिति में रह
ही नहीं जाते
तो उनके लिए
इस हालत में
चुनाव आयोग की
क्या ज़िम्मेदारी बनती
है ? क्या पराजित
प्रत्याशियों को ऐसे
अंजाम तक पहुँचाने
वाले विजयी प्रत्याशी
से उनके हिस्से
के खर्च पैसे
नहीं वापस मिलने
चाहिए और न
सिर्फ पैसे बल्कि
इस बीच उन्होंने
जो भागदौड़, मेहनत
की, अपनी ऊर्जा
खपाई -- उसके लिए
हर्जाना भी।
देखा
जाये तो यह चुनावी प्रक्रिया के साथ सीधा धोखा है कि आप एक चुनाव क्षेत्र को ऐसे चुनाव
में झोंक रहें हैं जहाँ यह गारंटी है कि सिवाय नाक ऊंची करने के उसका कोई और नतीजा
नहीं निकलने वाला और वहाँ फिर से चुनाव होना है। इस बारे में अब तक कोई ठोस निर्णय
नहीं लिया जा सका, लेकिन जब यह तय है कि आप एक साथ दो सीट नहीं रख सकते तो फिर दो जगह
से चुनाव लड़ने की छूट देने का औचित्य ही क्या है ?
मेरा
मानना यही है कि सोनिया हों, मोदी हों, या मुलायम -- पहली चीज़ तो किसी भी नेता को यूँ
चुनावी प्रक्रिया से धोखाधड़ी करने की छूट नहीं दी जानी चाहिए और कोई ऐसा करता भी है
तो आदर्श स्थिति यही होनी चाहिए कि यदि दो जगहों से विजयी कैंडिडेट एक सीट छोड़ता है
तो उपजेता को उस सीट से विजयी घोषित करना चाहिए तभी वहाँ से दूसरों के चुनाव लड़ने की
प्रासंगिकता पैदा होगी, बजाय फिर से चुनाव कराने के। मेरी इस राय से कोई और सहमत हो
न हो लेकिन यह तय है कि वाराणसी और आजमगढ़ के मोदी-मुलायम के सिवा बाकी प्रत्याशी अवश्य
सहमत होंगे।
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